Saturday, 24th May 2025

दो दशकों में जीडीपी के मुकाबले आधी रफ्तार से बढ़ी मजदूरी

Wed, Aug 22, 2018 7:02 PM

नई दिल्ली। साल 1993 से लेकर 2012 के बीच देश का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) चार गुना हो गया, लेकिन इस दौरान औसत मजदूरी केवल दोगुनी हुई। इस वजह से आर्थिक असमानता अपनी जगह बनी रही।

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों से भी संकेत मिलता है कि 1993-94 से लेकर 2011-12 के बीच वास्तविक औसत दैनिक मजदूरी दोगुनी हुई।

इस दौरान ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले लोगों, कैजुअल वर्कर्स, महिला कामगारों और कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों की मजदूरी में तेज इजाफा हुआ।

बावजूद इसके बड़े पैमाने पर असमानता बनी हुई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ओर से प्रकाशित 'इंडिया वेज रिपोर्ट' में कहा गया है, 'हालांकि पिछले दो दशकों के दौरान भारत में जीडीपी की सालाना औसत वृद्घि दर 7 फीसदी रही, लेकिन न तो मजदूरी में इस हिसाब से बढ़ोतरी हुई और न ही आर्थिक असमानता में कमी आई।

इस लिहाज से भारत को अपनी मजदूरी नीति में सुधार लाने की जरूरत है, ताकि समग्र विकास को बढ़ावा दिया जा सके क्योंकि अब भी कम मजदूरी, लैंगिक आधार पर वेतन-भत्तों में असमानता और अन्य आर्थिक गैर-बराबरी जैसे हालात बने हुए हैं।

आईएलओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में शानदार कार्य परिस्थितियां हासिल करने की राह में कम मजदूरी और वेतन-भत्तों में भारी असमानता गंभीर चुनौतियां हैं।

औसत मजदूरी 143 रुपए के न्यूनतम स्तर तक एनएसएसओ के रोजगार एवं बेरोजगारी सर्वेक्षण (ईयूएस) के मुताबिक 2011-12 में औसत दैनिक मजदूरी 247 रुपए थी। लेकिन, कैजुअल वर्कर्स के मामले में रोज की औसत मजदूरी केवल 143 रुपए थी।

ऊंची औसत मजदूरी बहुत कम तादाद में वैसे लोगों को मिली, जो या तो नियमित कर्मचारी थे या फिर वेतनभोगी थे। ऐसे कर्मचारियों में से ज्यादातर शहरी इलाकों में रहते हैं और वे कुशल पेशेवर माने जाते हैं।

न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं हालांकि साल 2004-05 के बाद से भारत में समग्र तौर पर मजदूरी को लेकर असमानता कुछ कम हुई है, फिर भी यह ऊंचे स्तर पर बनी हुई है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि करीब 33 फीसदी कामगारों (6.2 करोड़) को सांकेतिक राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी से भी कम मेहनताना मिलता है। महिलाओं के मामले में कम मजदूरी की समस्या ज्यादा गंभीर है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यूनतम मजदूरी तय करने के जो तरीके अपनाए हैं, उस मामले में भी सर्वसम्मति नहीं हे। न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारें न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए इसे एक मानक के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं।

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