- जनता अब भारत के विकास का हवाला देती है
- नेताओं से अवाम पूछती है- जीतने के बाद हमारे लिए क्या करोगे?
- तीनों प्रमुख पार्टियों के मैनिफेस्टो में पाक-चीन आर्थिक गलियारे पर जोर
इस्लामाबाद. तीन महीने पहले तक कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने के दावे हो रहे थे, लेकिन चुनाव करीब आते-आते यह मुद्दा अचानक खत्म हो गया। तीनों प्रमुख पार्टियों ने अपने-अपने मैनिफेस्टो में कश्मीर का जिक्र चंद लाइनों में समेट दिया। जबकि पिछले 14 आम चुनावों में इस मुद्दे ने सियासी दलों को सात बार सत्ता दिलाने में मदद की थी।
अब पाकिस्तान की अवाम को कश्मीर में दिलचस्पी नहीं रही। वह भारत का जिक्र कर अपने नेताओं से पूछती है कि जीत के बाद हमारी तरक्की के लिए क्या करोगे? पाकिस्तान में 25 जुलाई को वोटिंग होनी है।
शिक्षा-विकास पर ज्यादा जोर : इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन रिसर्च (आईपीओआर) का सर्वे भी यही कहता है कि पाकिस्तान की अवाम अब कश्मीर से ज्यादा शिक्षा और विकास जैसे मुद्दों पर बात कर रही है। यही वजह है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई), पाकिस्तान मुस्लिम लीग- नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के नेताओं के भाषणों में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का जिक्र है जिससे पाकिस्तान में रोजगार के मौके आने का दावा किया जा रहा है। हर बार लगने वाली अमेरिका की रट शांत है और बलूचिस्तान-अफगानिस्तान के आतंकी मसले पर भी चर्चा नहीं हो रही।
नवाज की पार्टी के हर बयान में था कश्मीर :फ्राइडे टाइम्स के राजनीतिक पत्रकार एजाज हैदर के मुताबिक, 8 अप्रैल 2018 को पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री और पीएमएल (एन) के प्रमुख शाहबाज शरीफ ने कहा, "अगर मैं प्रधानमंत्री बना तो कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाकर मुझे खुशी मिलेगी। जम्मू-कश्मीर में मोदी के कठोर फैसलों को देखकर मेरा खून खौलता है।" 25 जुलाई को आम चुनाव से महज 14 दिन पहले शाहबाज ने अपनी पार्टी का 68 पेज का मैनिफेस्टो पेश किया। इसमें कश्मीर को 62वें पेज पर जगह मिली है। उसमें भी सिर्फ शांति-व्यवस्था की बात कही गई है।
इमरान भी अब कश्मीर का नाम नहीं ले रहे : पीटीआई के चेयरमैन इमरान खान पिछले महीने तक कश्मीर को लेकर भड़काऊ बयान दे रहे थे। लेकिन उनके चुनावी घोषणा-पत्र में भारत के साथ अच्छे रिश्ते और कश्मीर का मुद्दा यूएनएससी में सुलझाने का वादा है। बिलावल भुट्टो की पार्टी पीपीपी भी कश्मीर का जिक्र नहीं कर रही।
पाक जनता को ‘जन्नत' की जरूरत ही नहीं : पाकिस्तान के पूर्व पत्रकार कमर आगा कहते हैं, "कश्मीर का मुद्दा अचानक खत्म होने की वजह जनता है। उन्होंने देश के दूसरे बड़े मुद्दों शिक्षा और गरीबी पर बात शुरू कर दी है। पाकिस्तान के युवा अपने अधिकारों और विकास के मुद्दे पर वोट देने के लिए तैयार हैं। उनका कहना है कि कश्मीर अगर पाकिस्तान में आ भी गया तो हमें क्या फायदा होगा? कश्मीर सेना के लिए 'जन्नत' होगा, लेकिन हमें इसकी कोई जरूरत नहीं है। जनता अपने नेताओं को बार-बार भारत की तरक्की दिखाती है और पूछती है- जीतने के बाद हमारे लिए क्या करोगे?"
बलूचिस्तान पर चुप्पी : बलूचिस्तान का मुद्दा हमेशा पाकिस्तान की राजनीति का हिस्सा रहा है। यह अलगाववादी विद्रोहियों का घर माना जाता है, जहां पाकिस्तान की सेना पर मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगता रहा है। यह मुद्दा इस बार के चुनाव से गायब है, जबकि पीएमएल-एन जनवरी तक बलूचिस्तान की गठबंधन सरकार का हिस्सा थी। सिर्फ पीपीपी ने अपने मैनिफेस्टो में कहा है कि बलूचिस्तान की स्थिति काफी खराब है। यहां नए तरीके से कोशिश करने की जरूरत है। कमर आगा बताते हैं, इस बार चुनाव आयोग ने खर्च की सीमा 40 लाख रुपए तय की है। बलूचिस्तान करीब 500 किलोमीटर में फैला हुआ है। इतनी रकम में यहां चुनाव प्रचार करना आसान नहीं है। यहां ज्यादातर जगहों पर अभी तक स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं हैं। अब लोग प्रत्याशियों से पूछते हैं कि पांच साल से कहां थे?
अमेरिका-अफगानिस्तान कनेक्शन : 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान से रणनीतिक तौर पर संपर्क में आने वाला पहला देश अमेरिका था। कुछ दशकों में दोनों देशों के रिश्तों में काफी उतार-चढ़ाव आया। वहीं, डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते बिगड़ते चले गए। इसकी वजह आतंकवाद और अफगानिस्तान, दोनों को माना जाता है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस वक्त पाकिस्तान का पूरा ध्यान चीन पर है।
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