Thursday, 22nd May 2025

सिने समीक्षा भारत के पोखरण पराक्रम की याद दिलाती ‘परमाणु’ -विनोद नागर

Thu, May 31, 2018 7:10 PM

1970 के दशक में राजस्थान के सीमावर्ती जिले जैसलमेर का जिक्र पत्र-पत्रिकाओं में वहां पसरे रेगिस्तान में रेत के टीलों से झांकती जीवन की दुश्वारियों और पानी की एक-एक बूँद की अहमियत से रूबरू कराते रिपोर्ताज से हुआ था. ऐसी ही किसी रपट के साथ कभी देखी थी पोखरण के किले की तस्वीर. कालांतर में पोखरण उस वक्त सुर्ख़ियों में आया जब अचानक 1974 में भारत ने वहां अपना पहला आणविक परीक्षण कर दुनिया को चौंकाया था. इस ऐतिहासिक घटनाक्रम के दो दशक बाद भारत को अपनी आणविक परीक्षण रेंज की याद 1995 में फिर आई लेकिन सम्बंधित विभागों में परस्पर समन्वय और अपेक्षित गोपनीयता के अभाव में समूचा प्रयास विफल हो गया. इसके तीन वर्ष बाद राजनैतिक अस्थिरता के बावजूद श्री अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत ने लगातार पांच सफल आणविक परीक्षण कर स्वयं को आणविक शक्ति संपन्न देशों में शामिल करा लिया था. इधर नई सदी में उत्तर कोरिया द्वारा अमेरिका को आणविक हथियारों के इस्तेमाल की धमकियों से उपजे तनाव के बीच जब पिछले शुक्रवार को किम योंग और डोनाल्ड ट्रम्प की बहुप्रतीक्षित मुलाक़ात फिर टल गई उसी दिन भारत में जॉन अब्राहम की ‘परमाणु’ का सिनेमाघरों में रिलीज़ होना महज एक संयोग ही कहा जाएगा.
मॉडलिंग की दुनिया से फ़िल्मों में आये जॉन अब्राहम ने बॉलीवुड में अपने डेढ़ दशक के कैरियर में अभिनेता के बतौर भले ही अपने गठीले जिस्म की खुली नुमाईश कर जोरदार धूम न मचाई हो, लेकिन ‘विकी डोनर’ तथा ‘मद्रास केफे’ जैसी फिल्मों के निर्माता के रूप में उन्होंने अच्छा नाम कमाया है. निर्माता के बतौर उनकी पिछली पेशकश फोर्स-2 भी ठीकठाक थी. अब ‘परमाणु’ बनाकर उन्होंने यथार्थ परक सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मो के निर्माण के मौजूदा चलन को सार्थकता प्रदान की है. ‘तेरे बिन लादेन’ के युवा निर्देशक अभिषेक शर्मा पर एक गंभीर फिल्म के लिये भरोसा जताकर उन्होंने जो समझदारी दिखाई है वह आने वाले समय में उनसे सार्थक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े सिनेमा की नई फसल को खाद-पानी देने की दरकार अवश्य करेगी.  
‘परमाणु’ की कहानी एक प्रतिष्ठित सैन्य अधिकारी के आयआयटी से इंजीनियरिंग स्नातक पुत्र कैप्टेन अश्वथ रैना (जॉन अब्राहम) द्वारा भारत को आणविक शक्ति के रूप में विकसित करने के गंभीर प्रयासों पर केन्द्रित है. रक्षा मंत्रालय में कार्यरत इस प्रतिभावान अधिकारी की पहल पर 1995 में सरकार द्वारा बेमन से हाथ में लिये गए मिशन के असफल होने का ठीकरा भी उसी के सर फूटता है जब उसे सेवा से मुअत्तिल कर दिया जाता है. सुशिक्षित वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली नौकरीपेशा पत्नी सुषमा (अनुजा साठे) और पुत्र प्रहलाद (आरुष नन्द) के साथ वह अपने गृहनगर मसूरी जाकर युवाओं को सिविल सर्विस परीक्षा की कोचिंग देने लगता है. इधर केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद दुबारा अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने पर पीएमओ के वरिष्ठ अधिकारी हिमांशु शुक्ला (बोमन ईरानी) 1995 के आणविक परीक्षण के असफल होने के मामले की छानबीन कर अश्वथ रैना को एक बार फिर इस मिशन को हाथ में लेने का अवसर प्रदान करते हैं. इस बार अश्वथ रैना कृष्ण जोशी के रूप में कुशल रणनीतिकार की हसियत से इस मिशन में महाभारत के पांच पांडवों की तर्ज़ पर भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (बार्क), सेना के रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ), भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी (आईएसए ) सेना (आर्मी) और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के वरिष्ठ अधिकारियों/ वैज्ञानिकों की टीम बनाकर पोखरण में गोपनीय ढंग से आणविक परीक्षण की योजना को क्रियान्वित करने में जुट जाता है. इस बीच अमेरिकी एवं पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियों के जासूस डेनियल (मार्क बेनिंग्टन) और आईएसआई एजेंट (अभिरॉय सिंह) इस मिशन की जानकारी हासिलकर अमेरिका भेजना शुरू कर देते हैं. आगे की कहानी इस मिशन के पूरा होने में आनेवाली बाधाओं को दूरकर चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटने की है.       
युवा निर्देशक अभिषेक शर्मा कसी हुई पटकथा के जरिये पूरी फिल्म को विश्वसनीय और रोमांचक बनाए रखने में कामयाब रहे हैं. ख़ास तौर पर राजस्थान के रेगिस्तान में उन्होंने फिल्म का बेहतरीन फिल्मांकन किया है. फिल्म का तकनीकी पक्ष बहुत उम्दा व प्रभावी है. महाभारत के पात्रों समेत देश, काल व परिस्थितियों को विश्वसनीय बनाने के लिये तत्कालीन टीवी फूटेज का भी उन्होंने बढ़िया उपयोग किया है. उपग्रह से निगरानी के दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं. कसे हुए संपादन के चलते फिल्म कहीं भी उबाऊ नहीं लगती. सचिन जिगर और जीत गांगुली के संगीतबद्ध गीत तथा संदीप चोटा का पार्श्व संगीत फिल्म की विषय वस्तु के अनुकूल है.  
अभिनय के लिहाज़ से जॉन अब्राहम ने अपने किरदार में जान फूंकने का हर संभव प्रयास किया है पर इस तरह की फिल्मो में अभिनय से ज्यादा कंटेंट का दमदार होना ज़रूरी होता है. पत्नी सुषमा की भूमिका में अनुजा साठे का स्वाभाविक अभिनय ध्यान खींचता है. राजस्थान टूरिज्म के गेस्टहाउस में अचानक पहुंची सुषमा का पति के कमरे में किसी और स्त्री को देखकर विचलित होने के दृश्य में उन्होंने कमाल किया है. कैप्टेन अम्बालिका बंदोपाध्याय के रोल में डायना पेंटी से लेकर हिमांशु शुक्ला के रोल में बोमन ईरानी तक अन्य सभी सहायक कलाकारों से निर्देशक ने अच्छा काम लिया है.
फिल्म के संवाद साधारण ही हैं - ये वक्त क्रिटिसिज्म का नहीं एक्शन का है.. मुझे भी मैडल मिलना चाहिए इतने सीरियस हसबेंड के साथ इतने साल गुजरने के लिये.. हीरो एक्शन से नहीं हौसलों से बनते हैं.. सिविल सर्वेंट का मतलब नहीं समझते हो तो सीट वेस्ट मत करो.. पता नहीं तीन साल से क्या बोझ लेकर जी रहे हो जिसके नीचे हम सब दबकर रह गए हैं.. 95 में जो हुआ वह देश का फेलियर है अकेले तुम्हारा नहीं.. मैं साइंस और कॉमन सेंस को साथ लेकर चलता हूँ.. कभी आर्मी के बंकर में खड़े होकर देखना ये कूलर भी एसी लगेगा.. हो सकता है मिशन के पूरा होने तक इस वर्दी के सही हकदार बन जाएँ.. बड़े रैंक के लिये बड़ा जिगर भी होना चाहिए.. अन्दर तक जल गया हूँ यार चाट का स्वाद नहीं आ रहा.. इस टेस्ट से हम देश का भविष्य बदल सकते हैं.. हमने जो किया देश के लिये और जो पाया वह देश का होगा..    
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं और आकाशवाणी-दूरदर्शन में रीजनल न्यूज़ हेड रह चुके हैं)
ई-मेल: vinodnagar56@gmail.com  
मोबाइल: 9425437902

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