मल्टीमीडिया डेस्क। भगवान महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं प्रतिपादक थे। भगवान महावीर तीर्थंकरों की कड़ी के अंतिम तीर्थंकर हैं। उनका जन्म नाम वर्धमान है। राजकुमार वर्धमान के माता-पिता श्रमण धर्म के पार्श्वनाथ सम्प्रदाय से थे। महावीर से 250 वर्ष पूर्व 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए थे।
भगवान महावीर का जन्म 27 मार्च 598 ई.पू. अर्थात 2615 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ। उनकी माता त्रिशला लिच्छवि राजा चेटकी की पुत्र थीं। भगवान महावीर ने सिद्धार्थ-त्रिशला की तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल की तेरस को जन्म लिया।
महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान आदिनाथ की परंपरा में 24वें तीर्थंकर हुए थे। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने घर-बार छोड़ दिया और कठोर तपस्या द्वारा कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिभाषित करके जैन दर्शन को स्थाई आधार दिया।
महावीर स्वामी ने श्रद्धा एवं विश्वास द्वारा जैन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा स्थापित की। बिहार में जृम्भिका गांव के पास ऋजुकूला नदी के तट पर वैशाख शुक्ल दशमी को (रविवार 23 अप्रैल ई.पू. 557) को उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई।
महावीर के उपदेश, जिओ और जीने दो
महावीर जी ने अपने उपदेशों द्वारा समाज का कल्याण किया। उनकी शिक्षाओं में मुख्य बातें थीं कि सत्य का पालन, अहिंसा अपनाओ, जिओ और जीने दो। इसके अतिरिक्त उन्होंने पांच महाव्रत, पांच अणुव्रत, पांच समिति तथा छः आवश्यक नियमों का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया, जो जैन धर्म के प्रमुख आधार हैं। पावापुर में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को भगवान महावीर ने अपनी देह का त्याग कर दिया।
12 वर्ष तक किया गहन ध्यान
भगवान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या तथा गहन ध्यान किया। अन्त में उन्हें 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त हुआ। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए शिक्षा देना शुरू की। अर्धमगधी भाषा में वे प्रवचन करने लगे, क्योंकि उस काल में आम जनता की यही भाषा थी।
कैवल्य प्राप्ति के बाद क्या कहा
अखंड व पूर्ण सत्य तो केवल कैवल्य-प्राप्ति से ही संभव है। कैवल्य-प्राप्ति के तीन साधन हैं- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र। इन तीनों को जैन धर्म में त्रिरत्न कहा गया है। महावीर ने कहा कि अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सामाजिक बुराइयों के कीचड़ में खिले कमल की भांति पृथक रहना ही असली संन्यास और कैवल्य-ज्ञान का मार्ग है। भगवान महावीर ने पांच महाव्रतों- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को गृहस्थों के लिए सरल ढंग से पालन करने का विधान प्रस्तुत किया।
चतुर्विध संघ की नींव रखी
भगवान महावीर ने कैवल्य ज्ञान मार्ग को पुष्ट करने हेतु अपने अनुयायियों को चार भागों में विभाजित किया- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। प्रथम दो वर्ग गृहत्यागी परिव्राजकों के लिए और अंतिम दो गृहस्थों के लिए। यही उनका चतुर्विध-संघ कहलाया।
महावीर के हजारों शिष्य थे जिनमें राजा-महाराजा और अनेकानेक गणमान्य नागरिक थे। लेकिन कुछ प्रमुख शिष्य भी थे जो हमेशा उनके साथ रहते थे। महावीर के निर्वाण के पश्चात जैन संघ की बागडोर उनके तीन शिष्यों गौतम, सुधर्म और जम्बू ने संभाली।
इनका काल क्रमश: 12, 12, व 38 वर्ष अर्थात कुल 62 वर्ष तक रहा। इसके बाद ही आचार्य परम्परा में भेद हो गया। श्वेतांबर और दिगंबर पृथक-पृथक परंपराएं हो गईं।
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