मल्टीमीडिया डेस्क। महाकवि सूरदास ने दुनिया को भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से देश-दुनिया को परिचित करवाया। कृष्ण भक्तों में सूरदास का नाम सबसे ऊपर है। कहा जाता है कि वह जन्म से ही देख नहीं सकते थे। मगर, सूरदास ने बिना आंखों के भगवान की जो लीलाएं देखी और कहीं, उतना सुंदर वर्णन कोई और नहीं कर पाया।
पुष्टिमार्ग के अनुयायियों में प्रचलित धारणा के अनुसार सूरदास जी को उनके गुरु वल्लाभाचार्य जी से दस दिन छोटा बताया जाता है। वल्लाभाचार्य जी की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी को मनाई जाती है। इसके गणना के अनुसार सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ माना जाता है, जो इस साल 20 अप्रैल को पड़ रही है।
सूरदास के जन्म स्थान को लेकर भी विद्वानों के मत अलग हैं। कुछ उनका जन्म स्थान हरियाणा के फरीदाबाद जिले में आने वाले गांव सीही को मानते हैं। वहीं, कुछ लोगों का मत है कि उनका जन्म मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता को मानते हैं।
जन्मांध होने पर भी एक मत नहीं लोग
सूरदास एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। दरअसल, उनकी कृष्णभक्ति के दोहों में जीवन की जो बारीकियां दिखती हैं, उन्हें बिना दृष्टि वाला व्यक्ति बयान नहीं कर सकता है। लिहाजा, कुछ लोगों को मत है कि वह जन्मांध नहीं थे। उन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में मिली थी, जिसके कारण यह बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गए थे।
मगर, इनका मन वहां नहीं लगा और अपने गांव को छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे। वहां सूरदास की मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।
सूरदास जी द्वारा लिखित पांच ग्रन्थ बताए जाते हैं
कहा जाता है कि सूरदास ने पांच ग्रंथों की रचना की थी। हालांकि, वर्तमान में इनमें से तीन ही उपलब्ध हैं। जानते हैं इनके बारे में...
1 सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
2 सूरसारावली
3 साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
4 नल-दमयन्ती
5 ब्याहलो
उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
सबसे प्रसिद्ध दोहे
1- मैं नहीं माखन खायो मैया। मैं नहीं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।।
देखि तुही छींके पर भजन ऊंचे धरी लटकायो। हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो।।
मुख दधि पोंछी बुध्दि एक किन्हीं दोना पीठी दुरायो। डारी सांटी मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।।
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।।
2- चरन कमल बंदौ हरि राई, जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई, सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ॥
3- अविगत-गति कछु कहत न आवै, ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।
परम स्वाद सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै, ।मन बानी कोँ अगम अगोचर, सो जाने जो पावै।
रूप-रेख-गुन-जाति जुगति-बिनु निरालंब कित धावै। सब बिधि अगम विचारिहिँ तातै सूर सगुन पद गावै
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