Sunday, 25th May 2025

इंदौर में पहला बोनमेरो ट्रांसप्लांट सफल, मरीज को पांच दिन बाद बनने लगे नए सेल्स

Tue, Mar 20, 2018 5:35 PM

इंदौर.एमवाय अस्पताल में बोन मैरो के सफल ट्रांसप्लांट के 17 दिन बाद सोमवार को जूनी इंदौर निवासी 33 वर्षीय उपेंद्र को डिस्चार्ज कर दिया गया। एक अन्य मरीज नीमच निवासी 45 वर्षीय कुसुम को मंगलवार को डिस्चार्ज किया जाएगा। उपेंद्र की छुट्‌टी होते ही पूरा परिवार खुशी से झूम उठा। उपेंद्र का बोन मैरो ट्रांसप्लांट 3 व 4 मार्च को किया।

 

मरीज की छुट्‌टी के वक्त संभागायुक्त संजय दुबे, यूनिट इंचार्ज डॉ. ब्रजेश लाहोटी, अधीक्षक डॉ. वीएस पाल, डॉ. सीवी कुलकर्णी, डॉ. अशोक यादव, डॉ. पूर्णिमा सरकार, डॉ. इंदिरा नारंग, डॉ. मालती सोलंकी, डॉ. जितेंद्र वर्मा सहित 60 डॉक्टर्स व कर्मचारी मौजूद थे। थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों का बोन मैरो ट्रांसप्लांट अगले माह- डीन डॉ. शरद थोरा ने बताया अप्रैल में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों का बोन मैरो ट्रांसप्लांट होगा। इसके लिए एचएलए टायपिंग टेस्ट करवा लिया है।

डब्ल्यूबीसी जीरो का मतलब प्रतिरोधक क्षमता भी जीरो, पर यह जरूरी था

मल्टीपल मायलोमा यानी कैंसर पीड़ित मरीज का ऑटोलॉगस ट्रांसप्लांट किया गया। इसके लिए शरीर से जीवन रक्षक श्वेत रक्त कणिकाओं (डब्ल्यूबीसी) को कुछ समय के लिए पूरी तरह नष्ट किया गया। फिर डब्ल्यूबीसी बढ़ाने के लिए मरीज को दवाइयां दी गईं। इसके बाद धीरे-धीरे स्टेम सेल निकाले गए। इन्हें चार डिग्री तापमान पर स्टोर किया गया। मरीज को कीमोथैरेपी के हाई डोज देकर संक्रमित कोशिकाएं नष्ट की गईं। इसके बाद नई स्वस्थ कोशिकाएं प्रत्यारोपित की गईं।

यह थी चुनौती : डब्ल्यूबीसी अलग से नहीं चढ़ा सकते

ब्लड बैंक के डायरेक्ट डॉ. अशोक यादव ने बताया ब्लड काउंट जीरो करने और नए सेल बढ़ने की अवधि गंभीर होती है। डब्ल्यूबीसी को जीरो पर लाया जाता है। इसके बाद यह धीरे-धीरे बनते हैं। जब तक यह चार हजार पर नहीं आएं, तब तक निगरानी रखी गई। सामान्य व्यक्ति के ब्लड में इनकी संख्या 4 हजार से 12 हजार होती है। जब शरीर में डब्ल्यूबीसी जीरो होते हैं तो रोग प्रतिरोधक क्षमता भी जीरो हो जाती है। रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या भी कम हो जाती है। प्लेटलेट्स और लाल रक्त कणिकाएं अलग से चढ़ाई जा सकती हैं, लेकिन डब्ल्यूबीसी नहीं।

आगे : मलेरिया, डेंगू से बचाव जरूरी

गुड़गांव के फोर्टिस अस्पताल के डॉ. राहुल भार्गव के मुताबिक अब मरीज का फॉलोअप जरूरी है। उपेंद्र ने दूसरी स्टेज पार कर ली है, लेकिन संक्रमण से बचाव जरूरी है। खासकर वायरल, बैक्टीरिया, मलेरिया, डेंगू सहित अन्य बीमारियों से मरीज को बचाना होगा।

4 साल में एम्स से मुंबई तक चक्कर, 12 बार एमआरआई, तब पता चली बीमारी

उपेंद्र की छुट्‌टी के वक्त पत्नी अंजलि और नौ साल की बेटी मान्या भी साथ थी। आंख में खुशी के आंसू लिए उपेंद्र ने बताया, ‘17 मई 2014 को पहली बार पता चला कि मैं कैंसर से ग्रस्त हूं। पहले डेढ़ साल में इलाज के लिए इधर-उधर भटकता रहा। पहले एम्स फिर मुंबई और वहां से इंदौर। 10-12 बार एमआरआई भी हुई। इंदौर में शासकीय कैंसर हॉस्पिटल में डॉ. रमेश आर्य से मिला। रेडिएशन थैरेपी के बाद पेट स्कैन करवाया तो रिपोर्ट सामान्य आई। खुश हो गया कि चलो बीमारी अब नहीं रही। सामान्य जीवन जी रहा था कि स्पाइनल कार्ड में नस दबने से शरीर के ऊपरी हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। कुछ समय बाद नीचे के शरीर ने भी काम करना बंद कर दिया। 2016 में बीमारी फिर लौटकर आ गई। हम फिर मुंबई गए। बताया कि बोन मैरो ट्रांसप्लांट ही विकल्प है। डॉ. आर्य ने एमवायएच में बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बारे में बताया।
डब्ल्यूबीसी को नष्ट कर जीरो पर लाए डॉक्टर, अब स्वस्थ होकर पहुंचा घर

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