नई दिल्ली. कोमा में जा चुके या मृत्यु शैय्या पर पहुंच चुके लोगों को इच्छा मृत्यु का हक देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट की कॉन्स्टीट्यूशन बेंच शुक्रवार को फैसला सुना सकता है। कोर्ट ने इस मामले में 12 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रखा था। आखिरी सुनवाई में केंद्र ने इच्छा मृत्यु का हक देने का विरोध करते हुए इसका दुरुपयोग होने की आशंका जताई थी।
एनजीओ ने लगाई थी पिटीशन
- एक एनजीओ ने लिविंग विल का हक देने की मांग को लेकर पिटीशन लगाई थी। उसने सम्मान से मृत्यु को व्यक्ति का हक बताया था।
- लिविंग विल में व्यक्ति जीवित रहते वसीयत लिख सकता है कि लाइलाज बीमारी की वजह से मृत्यु शैय्या पर पहुंचने पर उसके शरीर को लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम पर न रखा जाए।
केंद्र ने कहा- मेडिकल बोर्ड ही करता है फैसला
- बहस के दौरान केंद्र ने कहा था कि अरुणा शानबाग केस में कोर्ट मेडिकल बोर्ड को ऐसे दुर्लभ मामलों में लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटाने का हक दे चुका है। वैसे भी हर केस में आखिरी फैसला मेडिकल बोर्ड की राय पर ही होगा। अगर कोई लिविंग विल करता भी है तो भी मेडिकल बोर्ड की राय के आधार पर ही लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटाया जाएगा।
पहली बार 2011 में शुरू हुई थी इच्छामृत्यु पर बहस
- इच्छामृत्यु को लेकर सबसे पहले बहस साल 2011 में शुरू हुई थी। जब 38 साल से कोमा की स्टेट में रह रहीं केईएम अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक पिटीशन दायर की गई थी।
- अरुणा शानबाग के साथ 27 नवंबर 1973 में अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वॉय ने रेप किया था। उसने अरुणा के गले में कस दी थी जिससे वे कोमा में चली गईं। वे 42 साल तक कोमा में रहीं। अरुणा की स्थिति को देखते हुए उनके लिए इच्छामृत्यु की मांग करते हुए एक पिटीशन दायर की गई थी, लेकिन तब कोर्ट ने यह मांग ठुकरा दी थी।
- इसके अलावा केरल के एक टीचर ने भी कोर्ट के सामने इच्छामृत्यु की मांग रखी थी। जिसे केरल हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था।
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