इंदौर। दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। साधन संपन्न होने से राज्य संगठन भी अपनी रणजी टीमों को विमान की यात्रा कराते हैं।
इंदौर में खेले जा रहे रणजी फाइनल के लिए विदर्भ और दिल्ली की टीमें विमान से ही शहर पहुंची हैं। मगर हैरानी की बात है कि जिस देश के सबसे बड़े घरेलू क्रिकेट टूर्नामेंट की जिस ट्रॉफी के लिए टीमों में भिड़ंत है, वह सालों से ट्रेन में सफर करती है।
खिताबी मुकाबले के तीसरे दिन रविवार को रणजी ट्रॉफी इंदौर पहुंची, जिसे मुंबई के सीताराम के. तांबे लेकर आए। वे पिछले 48 साल से यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं। चंद दिन पहले बीसीसीआई से सेवानिवृत्त भी हो चुके हैं, लेकिन फिर भी बोर्ड ने उन्हें ही ट्रॉफी लेजाने की जिम्मेदारी दी।
बीसीसीआई के सभी टूर्नामेंट जैसे रणजी, दुलीप ट्रॉफी, ईरानी ट्रॉफी, कूच बिहार ट्रॉफी आदि की ट्रॉफियां लाने और ले जाने की जिम्मेदारी तांबे ही निभाते रहे हैं। चर्चा करते हुए उन्होंने बताया, 'पहले मैं ट्रॉफी लेकर स्लीपर क्लास में यात्रा करता था। मगर प्रो. रत्नाकर शेट्टी के प्रयासों से अब हमें भी अधिकारियों की तरह ट्रेन से सेकंड-एसी का टिकट मिलता है। पिछले कई सालों से सेकंड-एसी में यात्रा करता हूं।'
पटियाला के महाराज ने भेंट की है ट्रॉफी -
क्रिकेट के इतिहासकार डॉ. स्वरूप बाजपेयी के अनुसार 1934 की गर्मी में बीसीसीआई की बैठक शिमला में हुई। संस्थापक सचिव एंथोनी डिमेलो ने प्रस्ताव रखा कि ट्रॉफी का इंतजाम करें, जो घरेलू क्रिकेट के विजेता को मिले।
पटियाला के महाराजा भूपेंद्रसिंह तुरंत उठे और कहा कि ट्रॉफी मैं भेट करता हूं, जो महाराजा रणजी के सम्मान में होगी। एक साल पहले ही उनका निधन हुआ था। ट्रॉफी की तात्कालीन कीमत 500 पौंड थी। इस ट्रॉफी के लिए पहला मैच मद्रास में नवंबर 1934 में हुआ था। यह मद्रास और मैसूर के बीच हुआ था, जिसमें मद्रास जीता था।
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