Friday, 17th October 2025

राजस्थान के 6 जिलों से मौसम पर रिपोर्ट:बाड़मेर में लू की वजह से बेटियां नहीं ब्याहते थे, वहां पारा 48 डिग्री तक सिमटा, पहली बार हीट वेव से मौतें नहीं, आबू में जून में बादल

Fri, Jun 25, 2021 4:30 PM

  • लू ने बदला स्वरूप, तपन से अधिक हैरानी बरसा रही
 

हम जयपुर में सोच रहे हैं, मानसून की लाइव रिपोर्ट होती रही है; क्यों न पाठकों को लू के थपेड़ों से रूबरू करवाएं। लेकिन मौसम इतना ठंडा है... इस बार लू पहले जैसी नहीं है। फिर भी हम जैसलमेर में भारत-पाक बॉर्डर के किसी स्थल पर शाम 4 बजे पहुंचते हैं। मानो किसी ने हमें बरसती आग में डाल दिया है। धूल जूतों में गई तो लगा किसी ने जलते चूल्हे की गर्म राख डाल दी हो। जूतों का सोल पिघल सा जाता है।

सरहद की रक्षा के लिए इस आग बरसाती गर्मी में बीएसएफ की महिला जवानों की एक टुकड़ी असॉल्ट रायफलों के साथ तैयार है। हम पूछते हैं इतने तापमान में कैसे रहती हैं? वह कहती हैं- आज ताे कम है। कई बार तो 52 डिग्री पार कर जाता है। इसी दिन सुबह हम माउंट आबू से निकले तो जून में गुरु शिखर की पहाड़ी पूरी तरह बादलों में घिरी थी। नक्की झील के किनारे वर्षों से चाय बेचने वाले बताते हैं, इन दिनों बादल नहीं आते। जून अंत में आते हैं। इस बार बहुत पहले आ गए।

आबू; मानसून से पहले बादलों की गोद में खेल रही गर्मी
आबू; मानसून से पहले बादलों की गोद में खेल रही गर्मी

एमबीएम इंजीनियरिंग काॅलेज से 1976 के स्नातक इंजीनियर सज्जनकुमार कई दशक से जलवायु परिवर्तन के वैश्विक अध्ययन से जुड़े हैं। वे बताते हैं- क्लाइमेट चेंज दुनिया में कहर बरपा रहा है। उसके नुकसान हो रहे हैं; लेकिन पश्चिमी राजस्थान को बहुत फायदे हुए। लू के तेवर बहुत कम हैं। बारिश बढ़ी है। आमतौर पर 50 डिग्री रहने वाला पारा 48 डिग्री भी नहीं पहुंचा। लू से कोई मौत नहीं हुई।

बाड़मेर के कई गांवों में पहले लू के कारण कई युवक कुंआरे रह जाते थे। लोग इस तरफ बेटियां नहीं देते थे। अभी हम जिस गांव में हैं, वहां 42 और 48 साल के दो ही कुंआरे हैं। अब तो ये दो ही हैं, लेकिन पहले तो ऐसे आठ-दस लोग जिले के हर गांव में मिल जाते थे। प्रसिद्ध साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य बीकानेर में अपने घर पर हैं।

बताते हैं, अब पहले जैसी काली-पीली आंधियां नहीं आतीं। कभी 7-7 दिन ये आंधियां आती थीं। हर समय खंख (धूल भरी आंधी) चढ़ी रहती थी। खाने-पीने में रेत रहती थी। अब लू पहले जैसी मारक नहीं। मई-जून में भी रातें इतनी ठंडी होती थीं कि अल-सुबह खेसले ओढ़ने पड़ते थे, लेकिन अब रातें गरम हैं।

नौतपा अगर न तपे तो क्या होता है?
लोकसंस्कृतिविद दीपसिंह भाटी बताते हैं कि लू तो बेहद जरूरी है। मैं प्रश्न करता हूं, ‘क्यों’ तो वे जवाब देते हैं-
‘दो मूसा, दो कातरा, दो तीड़ी, दो ताव।
दो की बादी जळ हरै, दो विश्वर दो वाव।’
नौतपा के पहले दो दिन लू न चली तो चूहे बहुत हो जाएंगे। अगले दो दिन न चली तो कातरा (फसल को नुकसान पहुंचाने वाला कीट)। तीसरे दिन से दो दिन लू न चली तो टिड्डियों के अंडे नष्ट नहीं होंगे। चौथे दिन से दो दिन नहीं तपा तो बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे। इसके बाद दो दिन लू न चली तो विश्वर यानी सांप-बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। आखिरी दो दिन भी नहीं चली तो आंधियां अधिक चलेंगी। फसलें चौपट कर देंगी।

शाम-ए-अवध और सुबह-ए-बनारस की तरह है शब-ए-मारवाड़ : अज्ञेय
नंदकिशोर आचार्य जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर की रातों की शीतलता को याद करते हुए बताते हैं कि प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद अज्ञेय ने वर्षों पहले उन्हें एक पत्र लिखा था- ‘शाम-ए-अवध और सुबह-ए-बनारस बहुत प्रसिद्ध है। लेकिन शब-ए-मारवाड़ की कोई बात क्यों नहीं करता? ये कितनी हृदयहारी हैं।’
(अज्ञेय जब जोधपुर विवि में 1972 से 1977 के दौरान तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर थे, तब उन्होंने एक पत्र में ये पंक्तियां लिखी थी।)

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