मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता मोतीलाल वोरा जैसे नेता किसी पार्टी के लिए अपने आप में एक संस्था के समान हो जाते हैं। उन्हें संस्था बनाते हैं उनके अनुभव ,उनकी मेहनत,उनका लोक व्यवहार ,फैसले लेने की उनकी क्षमता,उनकी उपलब्धता, सहजता ,उनके विचार। इनमें से बहुत सारी विशिष्टताओं को मैंने बतौर रिपोर्टर ही वोरा जी में महसूस किया।
कांग्रेस संगठन में आने के बाद स्वाभाविक रूप से संवाद कम हुआ और जितना भी हुआ उसकी दिशा भिन्न थी । लेकिन वो अल्प संवाद भी उनके अपने व्यक्तित्व से भिन्न नहीं था। मोतीलाल वोरा को एक रिपोर्टर की नजर से देखने का एक ही मतलब होता था कि रिपोर्टर को कांग्रेस पार्टी के पक्ष में एक अच्छी कॉपी मिल जाएगी!आप के पास जितने किस्म के भी सवाल हों कर लीजिए, आपको जवाब में कहीं विचलन नहीं मिलेगा। कम से कम पिछले तीस पैंतीस वर्षों में वोरा जी की आमतौर पर ऐसी ही कॉपी मैंने लिखी या देखी।
वो इंटरव्यू
मुझे एक और किस्सा भूलता नहीं। यह उन दिनों की बात है जब रायपुर में दैनिक भास्कर नव भास्कर के नाम से ही शुरू हुआ था। कुछ अनुभवी पत्रकारों और ज्यादातर नए , प्रशिक्षु रिपोर्टर्स के साथ। 1989 के किसी महीने की बात थी। वोरा जी बतौर मुख्यमंत्री रायपुर आए थे। इस समय वे अविभाजित मध्यप्रदेश के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने थे।
वे देर रात दौरे से लौट कर रात्रि विश्राम के लिए रायपुर के सर्किट हाउस पहुंचे थे। सामने ही एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए दो युवा पत्रकार और दोनों ही भास्कर से ,वहां मौजूद थे। हम सोच रहे थे कि थके हारे मुख्यमंत्री रात डेढ़ बजे नौसीखिया पत्रकारों को तो क्या इंटरव्यू देंगे,लेकिन वोरा जी वहीं सोफे पर बैठ गए और कहा - पूछो! खूब सारे सवाल थे।सभी सवाल हो गए.रात के दो से ज़्यादा बज गए थे । सवाल बचे नहीं थे पर वोरा जी उसी चुस्ती के साथ बैठे थे.उन्होंने पूछा - और कोई सवाल ?हमें अब अखबार की डेड लाइन याद आयी, तेज़ी से प्रेस पहुंचे कॉपी बनाई देखने वाला कोई नहीं था। प्रिंटिंग मशीन के सहयोगी भी दोस्त थे। अखबार छपने से रुका हुआ था, प्रोडक्शन मैनेजर की कोई सुन नहीं रहा था। ले-दे कर पेपर छपा-देर तो बहुत हो ही गई थी।
हम तो पेपर छपने तक रुके हुए थे। प्रशिक्षु रिपोर्टर को मुख्यमंत्री के इंटरव्यू का मौका मिला था। छपाई के बाद सोचा कि फ्रंट पेज पर छपा यह इंटरव्यू मुख्यमंत्री के पढ़ने के लिए खुद ही छोड़ आते हैं, पता नहीं कोई उन्हें पढ़वाएगा भी या नहीं ! सबेरा हो है चुका था,हम लौट कर फिर सर्किट हाउस पहुंचे तो देखा कि वोरा जी तैयार हो कर लॉन में बैठे चाय के साथ भास्कर ही पढ़ रहे थे।
उनकी राजनीति
वोरा जी की राजनीति अलग चर्चा का विषय है लेकिन राजनीति के जिस मुकाम पर वो थे उसे हासिल करने में उनकी सुबह से लेकर रात तक की मेहनत की बड़ी भूमिका थी। राजनीति कितनी मेहनत,धैर्य और सहजता मांगती है इसे बतौर प्रशिक्षु रिपोर्टर तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा का इंटरव्यू करते हुए देखा था और अब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ काम करते हुए देख पा रहा हूं ।
दुर्ग की सियासत
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ काम करते हुए एक और ऑब्जरवेशन है और यह दुर्ग की कांग्रेस राजनीति को लेकर है । दुर्ग स्व चंदूलाल चंद्राकर,मोतीलाल वोरा से लेकर वासुदेव चंद्राकर और अब भूपेश बघेल जैसे दिग्गजों का गढ़ है। जो एक चीज़ कांग्रेस के इन नेताओं में एक जैसी नजर आती है वो है मेहनत और वैचारिक प्रतिबद्धता। गांधी जी और नेहरू जी के साथ-साथ समाजवादी राजनीतिक विचारों का प्रभाव भी दुर्ग कांग्रेस की राजनीति में नजर आता रहा है। चाहे जो परिस्थिति रही हो,मतभेद रहे हों पर दुर्ग के दिग्गज कांग्रेस नेताओं में कांग्रेस की राजनीति से विचलन नजर नहीं आया। वोरा जी से लेकर आज भूपेश बघेल तक किसी ने सांप्रदायिक राजनीति से समझौता किया हो ऐसा हुआ नहीं।
आज जो पश्चिम बंगाल को देख रहे हों या जिन्होंने हाल ही में और अतीत में भी मध्यप्रदेश को देखा हो उनके लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि दुर्ग के दिग्गज कांग्रेस नेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता बेजोड़ थी/है। वैसे वरिष्ठ गांधीवादी चिंतक और कांग्रेस में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके संविधान विशेषज्ञ कनक तिवारी दुर्ग से ही हैं और इस बारे में उनका विश्लेषण ही बेहतर होगा । मोतीलाल वोरा के राजनीतिक संस्कारों को गढ़ने में उनके पत्रकार के रूप में काम करने की भी भूमिका थी.
उनकी वरिष्ठता उनके विनम्र बने रहने में कभी आड़े नहीं आई.पत्रकारों का अनुभव है कि वोरा जी खुद फोन उठाते थे और लगभग हर फोन उठाते रहे। उनके अनुज और छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार गोविंद लाल वोरा जब रायपुर के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे तब उनकी सेहत के प्रति भरपूर चिंता के बीच बाहर वोरा जी मुझे अपने पत्रकार जीवन की दिलचस्प घटनाएं सुना रहे थे. वो याद कर रहे थे कि कैसे उनकी खबर पर भिलाई इस्पात संयंत्र में बड़ी गड़बड़ी रुकी थी.उन्हें याद था कि बतौर संवाददाता अखबार के दफ्तर तक तब एक खबर को पहुंचाना कितना कठिन काम हुआ करता था।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक टीवी चैनल के रिपोर्टर को मोतीलाल वोरा जी की याददाश्त के बारे में बता रहे थे। लोकप्रिय राजनीति के इस गुण को मैंने वोरा जी में देखा था और भूपेश जी में भी भी देखता हूं तो लगता है कि नेतृत्व की पाठशाला अलग होती है.इसे किसी एमबीए की डिग्री से हासिल नहीं किया जा सकता। वोरा जी को लोग बाबूजी कहते थे.उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
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