औरंगाबाद. प्रवासी मजदूरों के दर्द का आलम ऐसा है कि भास्कर हेडलाईन के लिए नि:शब्द है। उनके दर्द इतने हैं कि जानकर आपके आंखों में आंसू भर आएंगे। जिस हाईवे पर एक शहर से दूसरे शहर पहुंचने में लग्जरी वाहनों को 10 घंटे का समय लग जाता था। उसे प्रवासी मजदूरों ने भूखे-प्यासे ठोकर खाते पैदल 10 दिनों में नाप दिया। कोई दिल्ली से पैदल आ रहा तो कोई जालंधर से पैदल चला आ रहा।
कोई बंगाल से साइकिल चलाकर आ रहा तो कोई उड़ीसा से पैदल सड़क नापते आ रहा है। इनके दर्द हजार हैं। ये पूछने पर मना करते हैं। रोते हुए कई प्रवासी मजदूरों ने कहा हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए। क्यों जले पर नमक छिड़क रहे? रोजी-रोटी के लिए प्रदेश गए थे। लेकिन कोरोना ने सबकुछ छिन लिया। अब भूखे-प्यासे अपने उसी गांव में लौट रहे हैं, जहां आने की फुर्सत भी नहीं थी। मत पूछिए, छोड़ दीजिए।
गुलाम व श्याम नारायण दिल्ली से पैदल आ रहे, अभी भी दूर मंजिल
माथे पर 30 से 40 केजी का गठरी और भूखे-प्यासे चलने की मजबूरी। हजार किलोमीटर दूरी से आ रहे झारखंड के गढ़वा जिले के गुलाम सरवर व पलामू जिले के श्याम नारायण भास्कर के हाईवे पड़ताल में एनएच दो पर मिले। दोनों ने दर्द भरी दास्तां को बताते हुए रो पड़े। गुलाम सरवर ने बताया कि वह पानीपत से किसी तरह दिल्ली पहुंचा और दिल्ली से पैदल चला आ रहा। वह पानीपत के एक कपड़ा मिल में काम करता था। लॉकडाउन के बाद कंपनी ने बाहर निकाल दिया। फिर मकान मालिक ने बाहर निकाला। कई रातें सड़कों पर गुजारी।
अब कभी थकते कभी चलते लगातार जा रहे हैं। अभी भी मंजिल 150 किलाेमीटर दूर है। उसने बताया कि गढ़वा जिले के कुरकुट गांव में उसका घर है। जहां वह अगले दिन पहुंचेगा। सप्ताहभर के सफर में दो दिन बार खाया है। बिहार में मात्र एक जगह खाना मिली है। यूपी में दो जगह। वहीं पलामू जिले के डुमरी का रहने वाला श्याम नारायण का हाल भी कुछ इसी तरह है। उसने बताया कि वह दिल्ली के स्पोर्ट कंपनी में काम करता था। लॉकडाउन में सबकुछ समाप्त हो गया। अब बस अपना वही गांव दिख रहा है।
500 मीटर के फासले पर झुंड के झुंड हाईवे पर गुजर रहे प्रवासी मजदूर
एनएच दो व एनएच 139 पर 500 मीटर के फांसले पर प्रवासी मजदूरों का झूंड दिख रहा। सब का दर्द एक है। कोई उड़ीसा से पैदल आ रहा तो कोई दिल्ली से पैदल सड़क नापते गया जा रहा। गुरूवार को दैनिक भास्कर ने एनएच दो पर करीब 25 किलोमीटर के दूरी तय की। इस दौरान करीब 50 अलग-अलग प्रवासी मजदूरों का ग्रुप दिखा। इसी तरह एनएच 139 में अंबा से लेकर ओबरा तक टीम ने बाइक से सफर तय की। उस हाईवे का भी कुछ ऐसा ही हाल था। लेकिन एनएच दो पर मजदूरों का काफिला थोड़ा ज्यादा है। सभी की परेशानी एक। माथे पर भारी-भरकम बोझ और आंखों के सामने लंबी रास्ता।
बस एक ही उम्मीद एक दिन अपने घर पहुंच जाएंगे। जहां पले-बढ़े और जवान हुए। इस दौरान गया जिले के पचरा गांव निवासी सिंटू कुमार, एमवारा गांव निवासी संतोष कुमार व उड़ीसा से बांका जा रहे अवनीश ने बताया कि कोरोना ने हमे गांव याद दिलाया है। अब गांव को ही सोना बनाएंगे। अब कहीं नहीं जाएंगे। अगर हम सैकड़ों मीटर रास्ते पैदल नाप सकते हैं तो हमारे इरादों को समझ सकते हैं। हम गांव को सोना बनाएंगे। यह संकल्प भी हम ले चुके हैं।
मंजू बोली- मर मिट जाएंगे, लेकिन अब परदेस नहीं जाएंगे, बहुत अपमान हुआ साहब
गया जिले के डुमरिया थाना के पाचर गांव की रहने वाली मंजू सिकंदराबाद से वह कुछ पैसे देकर एक ट्रक के जरिए यूपी के एक बड़े शहर तक पहुंची। जिसके वह नाम भी नहीं जानती। उसके साथ उसके पति ललन राम भी सफर में साथ दे रहे हैं। यही उसे हौंसला दे रहा। उसने कहा जिस शहर में जाने में दो दिन ट्रेन में बीतता था। साहब उस रास्ते को हम पैदल नाप दिए। सिर पर भारी-भरकम बोझ है। लेकिन फर्क नहीं पड़ रहा। हम तो मेहनत से बड़े कंपनी खड़ा किए।
हमें क्या हम तो हजारों किलोमीटर रास्ता तय कर लेंगे। अब तय तो उन्हें करना है, जो हमें दुत्कारकर भगाए। न वेतन दिया न खाना। रहने की तो बात ही छोड़ दीजिए। भास्कर टीम को बताते हुए मंजू रो पड़ी। बाेली साहब जिस रोजी-रोटी के लिए परदेस गए थे। वहां न रोजी बचा और न रोटी। पहले कंपनी ने लॉकडाउन का हवाला देकर बाहर किया। फिर मकान मालिक ने भगाया। मंजू बतायी उसके पति ललन एक सरिया कंपनी में काम करते थे और वह खुद बड़े-बड़े 25 लोगों के घर में झाड़ू पोछा व खाना पकाने की काम करती थी। लेकिन कोरोना को आते ही वे कंपनी ने भी भगा दिया। उन 25 घरों में भी प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। हम सड़क पर आ गए। बहुत अपमान झेले साहब, रो-रोकर हमारे आंखों का बूरा हाल हो चुका है। हमें नहीं चाहिए नौकरी। हमें नहीं चाहिए पैसा। हम मर मिट जाएंगे, लेकिन परदेस नहीं जाएंगे।
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