भोपाल. प्रदेश में जारी सत्ता का संघर्ष अब पूरी तरह कानूनी दांव-पेंच में उलझ गया है। राज्यपाल के आदेश के बावजूद राज्य सरकार द्वारा फ्लोर टेस्ट नहीं कराए जाने के खिलाफ भाजपा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया है। वहीं मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्यपाल को पत्र लिखकर उनके द्वारा दिए गए आदेश की वैधता को ही चुनौती दे दी है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, भाजपा कांग्रेस पर अल्पमत में होने और राज्यपाल के आदेशों के अवहेलना का आरोप लगा रही है, तो कांग्रेस ने भाजपा पर उसके 22 विधायकों का अपहरण करने और राज्यपाल पर भाजपा के इशारे पर अधिकारों के दुरुपयोग का आरोप लगा दिया है।
संविधान के अनुच्छेद और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अपने-अपने मतलब
अनुच्छेद 174 (राज्य के विधान-मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन का अधिकार)
1. राज्यपाल, समय-समय पर, विधान-मंडल के सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जिसे वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, दो सत्रों के बीच छह माह का अंतर नहीं होना चाहिए।
2. राज्यपाल, विधानसभा का सत्रावसान कर सकता है और विधान सभा का विघटन कर सकता है।
अनुच्छेद 175 (सदन या सदनों में अभिभाषण का और उनको संदेश भेजने का अधिकार)
1.राज्यपाल, विधानसभा में अभिभाषण कर सकता है, और इसके लिए सदस्यों से उपस्थित रहने की अपेक्षा कर सकता है।
2. राज्यपाल, विधानसभा में लंबित किसी विधेयक के संबंध में या किसी अन्य विषय पर कोई संदेश सदन को भेज सकता है।
अनुच्छेद 163 (राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद)
1. जिन बातों में संविधान द्वारा राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कार्यों को स्वयं के विवेकानुसार करे, उन्हें छोड़कर बाकी के कार्यों में राज्यपाल की सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।
2. यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।
कांग्रेस के तर्क - विवेक तन्खा, राज्यसभा सांसद
भाजपा का तर्क - आरएन सिंह (पूर्व महाधिवक्ता), भाजपा
मायने( एक्सपर्ट की नजर से ) - प्रो. फैजान मुस्तफा कुलपति, नाल्सर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ
सुप्रीम कोर्ट के अभी तक के सभी फैसले यही कहते हैं कि जब भी बहुमत और अल्पमत का विवाद खड़ा हो, तो सदन में फ्लोर टेस्ट से ही फैसला होना चाहिए। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट एक तय समयसीमा में फ्लोर टेस्ट कराने का ही आदेश देगा। यहां सरकार का फ्लोर टेस्ट नहीं कराने का फैसला गलत है, बेहतर होता कि सरकार फ्लोर टेस्ट पर बहस कराती और वोटिंग को टाल देती। इस मामले में गवर्नर लीगली अपनी जगह सही हैं, लेकिन नैतिक रूप से गलत हैं। उन्हें इतने शाॅर्ट नोटिस पर सत्र के पहले ही दिन फ्लोर टेस्ट के निर्देश देने की बजाय कम से सरकार को दो या तीन दिन का वक्त देना चाहिए था। सत्ता का यह संघर्ष अब दो संवैधानिक पदों के टकराव पर आकर अटक गया है, एक ओर स्पीकर है दूसरी ओर गवर्नर। सामान्यत: स्पीकर का झुकाव मुख्यमंत्री की तरफ और राज्यपाल का केंद्रीय सरकार की पार्टी की ओर होता है। दोनों की ही राजनीतिक लॉयल्टीज हैं, जिन्हें वे निभा रहे हैं। नैतिकता और संवैधानिक तकाजों की बहस में दोनों ही पूरी तरह खरे नहीं उतर पाएंगे। इग्लैंड में ऐसी व्यवस्था है कि स्पीकर और राज्यपाल राजनीतिक पार्टियों के लोग नहीं होते हैं। लेकिन हमारे यहां राजनीतिक लोग हैं, उनसे पूरी तरह निष्पक्षता की उम्मीद की ही नहीं जा सकती।
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