रायपुर. बस्तर की आदिवासी परम्पराएं कई रोचकता समेटे हुए हैं। पूरा देश जब दिवाली मना रहा होता है, तब बस्तर के ग्रामीण इलाकों में इसका जिक्र तक नहीं होता। यहां के रहने वाले आदिवासियों में इस त्योहार को मनाने की कोई रवायत नहीं है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय ने जरुर वक्त के साथ दिवाली मनाना शुरू कर दिया। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासियों की मान्यता और परम्पराएं बरकार हैं।
दंतेवाड़ा के रहने वाले कोया आदिवासी समाज के संरक्षक बल्लू भवानी ने बताया कि शहर में दिवाली पर दिये और पटाखे दिखते हैं। लेकिन गांवों में आप यह नहीं देखेंगे। यहां दिवाली मनाने का कोई संस्कृति नहीं है। अंदर के इलाकों में तो बहुत से लोगों को इसकी जानकारी तक नहीं। नवंबर के महीने जब फसल पकने लगती है तब एक त्योहार मनाया जाता है। इसे गोंडी बोली में दीवाड़ कहते हैं, हल्बी में इसी का नाम दियारी भी है। इस त्योहार में ग्रामीण अपने ग्राम देवता को पूजते हैं। हर गांव के देवता भी अलग होते हैं। बल्लू ने बताया कि उनके भोगम क्षेत्र में वंगे डोकरी देव की पूजा होती है। दीवाड़ दो दिनों तक मनाया जाता है।
दीवाड़ त्योहार में बस्तर संभाग में रहने वाले आदिवासियों के सभी समुदाय जैसे मुरिया, हल्बा, दोरला, माड़िया, भतरा मनाते हैं। इसमें गांव के देवता को पकी फसल का चावल, कुम्हड़ा(कद्दू), सेमी का फल अर्पित किया जाता है। इसी दौरान देवता के पास ग्रामीण दिया जलाते हैं। इसके बाद दिसंबर के आखिर और जनवरी के पहले हफ्ते के आस-पास गाड़ी पंडुम त्योहार मनाया जाता है। तब फसलों को काट जाता है। इसमें पनी श्रध्दा के अनुरूप ग्रामीण फसल का कुछ हिस्सा देवता को चढ़ाते हैं। इसे पट्टी देना कहा जाता है।
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