नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए पिछले हफ्ते केंद्र सरकार को गाइडलाइंस बनाने के निर्देश दिए और 3 हफ्ते के अंदर जवाब भी मांगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग बेहद खतरनाक है। सरकार इस मुद्दे पर चुप नहीं बैठ सकती। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के लिए गाइडलाइंस या नियम-कानून बनाने की मांग तेज हो गई है। सोशल मीडिया के लिए गाइडलाइंस बनाना कितना जरूरी है? क्या इससे दुरुपयोग रोका जा सकता है? ऐसे सवालों के जवाब जानने के लिए भास्कर प्लस एप ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और डेटा प्रोटेक्शन बिल के लिए गठित समिति के अध्यक्ष जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता, फैक्ट-चेकिंग वेबसाइट सोशल मीडिया होक्स स्लेयर के संस्थापक पंकज जैन और आईटी एक्सपर्ट विनीत गोयनका से बात की।
दरअसल, सोशल मीडिया अकाउंट और फेसबुक के वैरिफिकेशन को लेकर 4 याचिकाएं अलग-अलग हाईकोर्ट में दाखिल की गईं। इनमें से दो याचिकाएं मद्रास हाईकोर्ट, जबकि एक-एक याचिका मध्यप्र देश और बॉम्बे हाईकोर्ट में दाखिल है। मद्रास हाईकोर्ट में जो याचिका दाखिल की गई है, उसमें मांग की गई है कि सोशल मीडिया अकाउंट का आधार कार्ड या किसी दूसरी सरकारी आईडी से वेरिफिकेशन होना चाहिए। मद्रास हाईकोर्ट में इस मामले पर सुनवाई चल ही रही है और जल्द ही फैसला आने की भी उम्मीद थी। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले से बचने के लिए फेसबुक और वॉट्सऐप सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं और देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे 4 मामलों को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करने की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने फेसबुक की याचिका पर सुनवाई करते हुए सोशल मीडिया के जरिए हो रहे अपराधों पर चिंता जताई और केंद्र सरकार को इसके गलत इस्तेमाल को रोकने के लिए गाइडलाइंस बनाने के निर्देश दिए।
फैक्ट-चेकिंग वेबसाइट सोशल मीडिया होक्स स्लेयर के संस्थापक पंकज जैन का कहना है कि सोशल मीडिया के जरिए अफवाह और फेक न्यूज फैलाने वालों को दंडित करने की जरूरत है। हाल ही में सरकार ने यातायात नियम सख्त किए हैं, जिससे बदलाव देखने को मिल रहा है क्योंकि लोग अब यातायात नियम तोड़ने से डर रहे हैं। इसी तरह से फेक न्यूज फैलाने वाले लोगों के साथ भी ऐसा ही होना चाहिए। खासतौर से हिंसा, सांप्रदायिक घृणा आदि फैलाने वालों के लिए सजा और जुर्माना एक समान होना चाहिए, चाहे वे किसी भी राजनीतिक पार्टी या धर्म का समर्थन करते हों।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और डेटा प्रोटेक्शन बिल के लिए बनी कमेटी के अध्यक्ष रहे जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा ने भास्कर ऐप से बातचीत में बताया कि दूसरे कई देशों में कंटेंट के मामले में सोशल मीडिया कंपनियों ही जिम्मेदारी होती हैं, लेकिन भारत में कंपनियों की कोई जवाबदेही नहीं है। शायद यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सरकार को गाइडलाइंस लागू करने का आदेश देने को मजबूर हुआ। जस्टिस श्रीकृष्णा कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में यह बात आई होगी कि सोशल मीडिया पर जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है, उसे कानून व्यवस्था, शालीनता और जनहित में प्रतिबंधों के अधीन किया जाना चाहिए।
आईटी एक्सपर्ट विनीत गोयनका कहते हैं कि कोई गाइडलाइंस या नियम नहीं होने की वजह से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कोई भी कुछ भी लिख रहा है, जिससे सामाजिक सौहार्द्र तो बिगड़ता ही है, साथ ही जातिगत भेदभाव और धार्मिक भेदभाव को भी बढ़ावा मिलता है। इसलिए अब इसे रोकने के लिए गाइडलाइंस जरूरी हैं। वहीं, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि प्रिंट, टीवी और अन्य मीडिया के इस्तेमाल के लिए नियम और गाइडलाइंस बने हैं। उसी तर्ज पर सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए नियम बनने चाहिए।
अप्रैल 2019 में फेसबुक ने एक प्रेस रिलीज जारी की थी, जिसमें बताया था कि भारत में होने वाले आम चुनावों में वोटरों को प्रभावित करने के लिए कई लोग फेक अकाउंट का इस्तेमाल करते हैं और कई दूसरे ग्रुप में भी जुड़ते हैं, ताकि अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकें। फेसबुक के मुताबिक, ऐसे लोग फेक अकाउंट का इस्तेमाल स्थानीय समाचार और राजनीतिक पोस्ट करने के अलावा विरोधी पार्टियों की आलोचना करने के लिए करते हैं। वहीं, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट बताती है कि 2019 में 70 देशों की राजनीतिक पार्टियां वोटरों को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल कर रही हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि भारत में वोटरों को प्रभावित करने के लिए पार्टियां सबसे ज्यादा फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सऐप का इस्तेमाल करती हैं।
विराग बताते हैं कि चुनाव आयोग ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर अक्टूबर 2013 में गाइडलाइन बनाई थी। इस पर चुनाव आयोग तो अमल करता है, लेकिन निचले स्तर पर प्रशासन और चुनाव अधिकारियों में जानकारी का अभाव है। सोशल मीडिया कंपनियां भी इसके पालन करने में कतराती हैं, जिससे रिपीटेशन एक्ट के तहत जारी गाइडलाइंस का सही पालन नहीं हो रहा है।
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