धर्मेन्द्र सिंह भदौरिया, गोरखपुर . पूर्वांचल का सबसे बड़ा धार्मिक आस्था और राजनीति का केंद्र है गोरखनाथ मंदिर। मंदिर के सामने गोरखनाथ थाने पर दोस्तों के साथ खड़े अशोक चौधरी कहते हैं कि गोरखपुर में भाजपा का उम्मीदवार मंदिर से होगा तो ही पार्टी जीत की उम्मीद कर सकती है नहीं तो गठबंधन भारी पड़ेगा। उप चुनाव में मंदिर का उम्मीदवार नहीं था इसीलिए हार हुई।
चौधरी की बात में ही गोरखपुर की राजनीति की नब्ज भी है। आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं। 1989 से लगातार आठ बार से गोरक्षपीठाधीस्वर ही गोरखपुर से सांसद रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने यह सीट खाली की तो मार्च 2018 में हुए उपचुनाव में भाजपा की हार हुई और सपा के प्रवीण िनषाद सांसद बने।
राजनीतिक विश्लेषक मनोज सिंह कहते हैं कि 2014 में गोरखपुर और बस्ती मंडल की सभी नौ सीटें भाजपा ने जीती थीं। इस बार ऐसा संभव नहीं दिखता। ऐसा इसलिए भी माना जा रहा है क्योंकि प्रियंका गांधी यहां बेहद सक्रिय हैं और गठबंधन तो एक बड़ा फैक्टर है ही।
हालांकि, भाजपा एक-डेढ़ महीने पहले से ही चुनावी मोड में आ गई है और लगातार मुख्यमंत्री क्षेत्र को ज्यादा समय दे रहे हैं। 24 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने भी फर्टिलाइजर मैदान पर बड़ी किसान रैली की थी। गोरखपुर में भाजपा के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि योगी आदित्यनाथ ने अभी तक अपना कोई राजनीतिक उत्तराधिकारी तय नहीं किया है। भाजपा यहां विकास के आधार पर वोट मांग सकती है...पर यह कार्ड चलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि डेवलपमेंट तो अखिलेश यादव ने भी किया था लेकिन बुरी तरह हारे।
स्थानीय सांसदों की निष्क्रियता का फायदा भी विपक्ष को मिल सकता है। सपा जिलाध्यक्ष प्रहलाद यादव कहते हैं योगी आदित्यनाथ तपस्या से अलग होकर राज भोग रहे हैं इसलिए गोरखनाथ बाबा ने हम आम इंसानों को अपना आशीर्वाद िदया है। कांग्रेस के अलग लड़ने और प्रियंका फैक्टर के बारे में वे कहते हैं कि उनके आने से हमें फायदा है क्योंकि 30 साल पहले की कांग्रेस (आई) के जो लोग थे वही आज भाजपाई है। वे तो भाजपा के वोट ही काटेंगी। वहीं कांग्रेस जिलाध्यक्ष राकेश यादव कहते हैं प्रियंका के आने से महिलाओं का वोट कांग्रेस को मिलेगा।
कुशीनगर से तो आरपीएन सिंह सौ फीसदी जीतने जा रहे हैं। 2009 में हम नौ में से तीन सीट जीते थे इस बार भी हम तीन सीट तो जीतेंगे ही। अंचल में हिंदू-मुस्लिम समीकरण के लिहाज से सबसे नाजुक सीट डुमरियागंज है, यहां करीब 31% मुस्लिम वोट है। यहां से भाजपा सांसद जगदंबिका पाल है जो 2009 में कांग्रेस से जीते थे। यहां बसपा के संभावित उम्मीदवार आफताब आलम सक्रिय दिखते हैं। मुकाबला कड़ा रहेगा। वहीं देवरिया में पूर्व केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र का टिकट अगर 75 पार फाॅर्मूले के तहत कटता है तो भाजपा को पैराशूट उम्मीदवार उतारना पड़ेगा।
गोरखपुर की राजनीति में कभी योगी के विरोधी माने जाने वाले केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री शिवप्रताप शुक्ला कहते हैं कि दरअसल पूर्वांचल के इस हिस्से में भाजपा ने कोई भी मुद्दा छोड़ा ही नहीं है। क्षेत्र में हवा (फ्लाइट कनेक्टिविटी) से लेकर सड़क तक काम हो रहा है। इसलिए इस बार भी नौ सीटें जीतेंगे। प्रियंका पर कहते हैं- बंद मुट्ठी लाख की और खुल गई तो खाक की कहावत इस बार प्रियंका गांधी के लिए सच साबित होगी। शुक्ला भले ही मुट्ठी की बात कहते हों लेकिन पूर्वांचल में मतदाताओं ने अपनी मुट्ठी बंद ही कर रखी है। मतदान तक दलों को वोटर्स की मुट्ठी अपनी ओर खुलवाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा।
माैजूदा स्थिति : 2014 के चुनाव में यहां सभी नौ सीटों पर भाजपा जीती थी। तब सपा और बसपा अलग-अलग लड़े थे। 4 सीटों पर इनके संयुक्त वोट भाजपा से ज्यादा थे। मार्च 2018 में उपचुनाव में सपा ने यह सीट छीन ली थी।
पूर्वांचल का गणित- गठबंधन: बसपा और सपा में गठबंधन हुआ है। गठबंधन के तहत सपा महाराजगंज, गोरखपुर और कुशीनगर तीन सीटों पर लड़ेगी। वहीं बसपा शेष छह सीटों बांसगांव, बस्ती, डुमरियागंज, संत कबीरनगर, सलेमपुर, देवरिया पर चुनाव लड़ेगी।
मुद्दे क्या हैं? : जाति और विकास बड़ा मुद्दा। एनसेफेलाइटिस से 2018 में 280 बच्चों की मौत बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में ही हुई थी। प्रोफेसर हर्ष सिन्हा के मुताबिक यहां प्रति व्यक्ति आय देश की औसत प्रति व्यक्ति आय से एक तिहाई ही है।
जातियों का गणित? : क्षेत्र में निषाद, यादव, जाटव और मुसलमान वोटों की तादाद है। इसे सपा-बसपा गठबंधन अपने साथ मानता है। भाजपा को करीब 30% सवर्ण वोट, मौर्य-कुश्वाह, कुर्मी, पासी, चौरसिया और गैर जाटव जातियों का सहारा है।
संभावनाएं क्या हैं : भाजपा महाराजगंज में तो गठबंधन बांसगांव में मजबूत दिखता है। कुशीनगर में कांग्रेस के पूर्व मंत्री आरपीएन सिंह मजबूत स्थिति में है। गोरखपुर, डुमरियागंज, संत कबीर नगर और देवरिया में मुकाबला कांटे का रहेगा।
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