स्टार रेटिंग | 4/5 |
स्टारकास्ट | सुशांत सिंह राजपूत, भूमि पेडनेकर, मनोज वाजपेयी, आशुतोष राणा, रणवीर शौरी |
डायरेक्टर | अभिषेक चौबे |
प्रोड्यूसर | रॉनी स्क्रूवाला |
जॉनर |
एक्शन |
अवधि | 2 घंटे 23 मनिट |
बॉलीवुड डेस्क. अभिषेक चौबे सोनचिड़िया के साथ दर्शकों को डकैतों की दुनिया में वापस ले आए हैं। डकैत जो कि चंबल की घाटी में रहा करते थे और लोगों को लूटकर विद्रोह का जीवन जीते थे। हालांकि, उन्होंने डकैतों की असलियत की केवल पहली परत ही छुई है। फिल्म में तीन मुख्य डकैतों, मान सिंह (मनोज बाजपेयी), वकील (रणवीर शौरी) और लखना (सुशांत सिंह राजपूत) के रियल और अलग-अलग व्यक्तित्वों पर अधिक फोकस किया है।इन डकैतों का जीवन भले ही लोगों को लूटने से चल रहा है लेकिन उनके सिद्धांत काफी स्ट्रॉन्ग हैं और उनका अपराधबोध भी बहुत गहरा है।
डायरेक्टर ने चंबल घाटी में एक सुुंदर और वास्तविक दुनिया बसाई है। जिसे देखकर हमें लगता है कि यह सच ही है। चौबे के डकैत केवल काडबोर्ड कैरेक्टर नहीं हैं जैसा कि 70 के दशक की कुछ फिल्मों में उन्हें दिखाया गया था। जब डाकुओं पर आधारित फिल्में बनाई गई थीं।
ग्रुप का लीडर मान सिंह (मनोज वाजपेयी) डकैत होने के बावजूद नर्म दिल है। वह और उसके अनुयायी अंधविश्वासी हैं, भगवान से डरते हैं और सही-गलत की पहचान रखते हैं। लखना (सुशांत) साहसी और अट्रैक्टिव करैक्टर है जो कि अपरोध बोध से घिरा है लेकिन वह कभी भी बुरी से बुरी हालत में भी न्याय के रास्ते से दूर नहीं होता। पावरफुल पुलिस ऑफिसर गुर्जर (आशुतोष राणा) किसी भी कीमत पर मान सिंह के गिरोह को खत्म करना चाहता है। अपनी ड्यूटी पूरी करने के साथ ही उसे कुछ अपना पर्सनल हिसाब भी करना है।
मनोज बायपेयी का रोल छोटा लेकिन महत्वपूर्ण है। रणवीर शौरी हमेशा से भरोसे के लायक रहे हैं इस फिल्म में भी उन्होंने शानदार काम किया है। हालांकि फिल्म सुशांत सिंह राजपूत की है। उन्होंने फिल्म में जबरदस्त एक्टिंग की है। नर्मदिल और न्याय का सेंस रखने वाले डाकू का किरदार उन्होंने बेहद आकर्षक ढंग से निभाया है। यह एक्टर निश्चित रूप से ऐसे बेहतरीन ढंग से लिखे गए और किरदारों का हकदार है। भूमि पेडनेकर को रोल सूट करता है और उन्होंने अच्छा काम किया है।
कहानी जिसे अभिषेक चौबे और सुदीप शर्मा ने लिखा है वह काफी संवेदनशील है। कहानी में कई परतें हैं जो लगातार आकर्षित करती हैं और फिल्म से जोड़कर रखती हैं। डायरेक्टर ने भी फिल्म के जरिए भेदभाव जैसे मुद्दों को उठाया है। जिससे फिल्म का कंटेंट रिच और आज के हालातों से मिलता जुलता है।
फिल्म का जिस तरह से बनाई गई है वह बांधे रखने वाली, टू द पॉइंट और बड़े पैमाने पर प्रभावशाली है। कहानी सेकंड हाफ में थोड़ा लड़खड़ाती है। ऐसा लगता है कि इसको कहानीकारों की सुविधा के अनुसार थोड़ा खींचा गया और तोड़-मरोड़ा गया है।विशाल भारद्वाज का म्यूजिक इस ठेठ और देहाती दुनिया का हिस्सा बनता सुनाई देता है।
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