भोपाल. मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों का इस दृष्टि से भी विश्लेषण किया जा सकता है कि कांग्रेस कुछ भी नहीं करने के बावजूद जीत का सट्टा बाजार बनते हुए पूरी तरह से आक्रामक मुद्रा में कैसे थी और भाजपा अपना सबकुछ दांव पर लगा देने के बाद भी किसी अपराध भाव से ग्रसित होकर हार के डर के साथ बचाव का कवच क्यों ओढ़े हुए थी। पार्टी के डर की बाकी बची कसर बागियों और असंतुष्टों ने ऊपर से थोपे हुए अनुशासन को ध्वस्त करके पूरी कर दी।
किसी भी विधानसभा चुनाव में पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया कि एंटी इनकम्बेंसी सरकार के मंत्रियों, विधायकों और नौकरशाही के खिलाफ तो थी पर मुख्यमंत्री के खिलाफ नहीं थी, अगर ऐसा नहीं होता तो मध्यप्रदेश भी छत्तीसगढ़ हो जाता। चुनाव ऐसा हुआ कि शिवराज को माफी भी मिल गई और महाराज का गुस्सा भी पूरी तरह से फूट नहीं पाया।
शिवराज अकेले दम पर आखिर तक लड़ते रहे और अंत में कांग्रेस को आपस में लड़ने के लिए छोड़कर अपनी सरकारी की दावेदारी पेश करने से अलग हो गए। शिवराज अब विधानसभा में विपक्ष के नेता अजय सिंह की हर खाली कुर्सी पर बैठकर कम-से-कम लोकसभा चुनावों तक तो नई सरकार पर दबाव बना ही सकते हैं कि ‘अब वायदे भी पूरे करके दिखाओ महाराज।’ मुख्यमंत्री पद को लेकर कांग्रेस में अभी जो संग्राम चल रहा है वह अगर ट्रेलर है तो कल्पना कर लेना चाहिए कि पार्टी की फिल्म के लोकसभा के बॉक्स ऑफिस पर क्या कलेक्शन होने वाले हैं।
कल्पना से बाहर है कि कई मंत्रियों सहित कोई एक-तिहाई विधायकों के टिकट काट देने के बाद भी सरकार निपट गई। कई मंत्री भी खेत रहे। कांग्रेस के पास तो खोने के लिए राहुल गांधी की इमेज़ के अलावा कुछ था ही नहीं। भाजपा में मध्यप्रदेश और अन्य दोनों हिंदी-भाषी राज्यों में हुई हार का विश्लेषण इस लिहाज से भी किया जाना चाहिए कि इतनी जबरदस्त एंटी-इनकम्बेन्सी क्या वास्तव में केंद्र सरकार के खिलाफ थी और कि मोदी-शाह की सभाओं और रैलियों में जिन जिंदाबादियों’ की भीड़ दिखाई जाती थी वह वास्तव में मिलावटी थी। इस भीड़ ने मुगालता पैदा कर दिया था कि 2003 चुनाव के नतीजे ‘अबकि बार, दो सौ पार’ बनने वाले हैं।
भाजपा के पास मुख्यमंत्रियों की जो फौज है, उसमें ये तीन ही सबसे ज्यादा सशक्त चेहरे थे, जहां हाल ही में चुनाव हुए हैं और जो परिणामों में पिटे भी हैं। ये ही वे चेहरे भी हैं, जिन्हें नरेंद्र मोदी के लहर पर सवार होकर सत्ता में आने के ठीक बाद से ही हटाए जाने और उनकी जगह हरियाणा, उत्तराखंड और झारखंड जैसा नेतृत्व प्रदान करने की चर्चाएं या तो व्यवस्थित रूप से चलाई गईं या चलवाई गईं। इस तरह की अफवाहों ने तीनों राज्यों के नेतृत्व और प्रशासन को राजनीतिक रूप से हमेशा अस्थिर रखा। मध्यप्रदेश में तो चुनाव के ठीक पहले प्रदेशाध्यक्ष बदलकर जो तालियां बटोरी गईं थीं वे ही तालियां अब नतीजे आने के बाद अलग तरीके से बज रही हैं।
विधानसभा चुनाव परिणामों की सुई अब गाने की इसी पंक्ति पर घूमने लगी है कि चार-पांच महीनों के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को भाजपा किन मुद्दों पर लड़ना चाहेगी और अपने विरोधियों के प्रति किस तरह की भाषा और जुबान का इस्तेमाल करेगी। मतदाताओं का मानना है कि विधानसभा चुनाव में एक-दूसरे के प्रति भाषा का स्तर अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था। इस गिरे हुए स्तर ने परिणामों पर कितना असर डाला उसका पता नहीं लगाया जा सकता।
राहुल गांधी द्वारा पार्टी का नेतृत्व संभालने के ठीक एक साल बाद ही तीन राज्यों का उनकी झोली में एक साथ गिरना एक बड़ी उपलब्धि माना जाएगा। क्या कांग्रेस अपनी इस सरलता को विनम्रता के साथ हजम कर पाएगी? वैसे राहुल गांधी का कहना है कि उन्होंने प्रधानमंत्री से बहुत कुछ सीखा है और वे अब काफी विनम्र हो गए हैं। भाजपा के लिए तो हार का सदमा कांग्रेस की जीत के मुकाबले काफी बड़ा है। कर्नाटक और पंजाब जैसे बड़े राज्यों के बाद तीन और राज्य उसकी सूची में जुड़ गए हैं। देश अब कांग्रेस-मुक्त नहीं हो पाएगा। राहुल तो कह ही चुके हैं कि वे भाजपा-मुक्त भारत नहीं चाहते।
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