Saturday, 24th May 2025

पिहू / 2 साल की मासूम बच्ची दिखाती है शहरी जीवन की आधी हकीकत और आधा फसाना

Fri, Nov 16, 2018 7:18 PM

 

स्टार रेटिंग  3
स्टारकास्ट  मायरा विश्वकर्मा, प्रेरणा विश्वकर्मा
डायरेक्टर  विनोद कापड़ी
प्रोड्यूसर सिद्धार्थ रॉय कपूर, रॉनी स्क्रूवाला, शिल्पा जिंदाल
संगीतकार विशाल खुराना
जॉनर  थ्रिलर
रनिंग टाइम  93 मिनट

 

 

बॉलीवुड डेस्क.  इस बात का ख्याल किसी को भी डराने के लिए काफी है कि दो साल की बच्ची में अकेली है जहां पर कई तरह के इलेक्ट्रिक शॉक, ऑन आयरन, खुली हुई बालकनी और खुला हुआ नल है। कापड़ी ने कहानी की शुरूआत काफी अच्छे ढंग से की है जिसमें 2 साल की बच्ची सोकर उठती है। घर काफी अस्त-व्यस्त है क्योंकि उसके 2 साल के बर्थडे की पार्टी कल रात को हुई थी। मां उसके बगल में सो रही है। सब कुछ सही दिख रहा है। अचानक आपको अहसास होता है कि मां नींद की गोलियां ज्यादा लेने की वजह से मर चुकी है। इसके बाद पिहू का डरा देने वाला एडवेंचर शुरू होता है।

 

अपने लिए बच्ची की जंग : जिसमें वो मां को जगाने की कोशिश करती है, चिंतिंत पिता का कॉल अटैंड करती है जो कि बिजनेस ट्रिप की वजह से बाहर है। वह खुद का ख्याल रखने की भी कोशिश करती है। फिल्म के डायरेक्टर विनोद कापड़ी ने एक डरा देने वाली सच्ची कहानी को उठाया है। जिसमें मां के सुसाइड कर लेने के बाद 2 साल की बच्ची घर में अकेली है। फिल्म की कहानी दर्शकों का ध्यान खींचती है।

 

शहरी उदासीनता का चित्रण :  घर उसके लिए एक खतरनाक जगह की तरह लगता है क्योंकि यहां हर मोड पर खतरा है। कापड़ी बीच-बीच में गुब्बारे फूटने की आवाज, लाइट आने-जाने से सस्पेंस को बनाकर रखते हैं। इसके साथ ही उन्होंने शहरी उदासीनता को भी चित्रित किया है जिसमें लोग अपनी लाइफ में इतने मगन रहते हैं कि पड़ोसी के घर में कुछ गलत दिखने पर भी वे उस पर ध्यान देने का कष्ट नहीं करते। 

 

लम्बाई ने बनाया फिल्म को बोरिंग :  कुछ चीजें है जो फिल्म के अंगेस्ट में जाती हैं जिसमें फिल्म की लंबाई है। हालांकि फिल्म 93 मिनट लंबी ही है लेकिन ऐसा लगता है इतने समय में दिखाने के लिए बहुत कम है। डायरेक्टर फिल्म में नई चीजों को इंट्रोड्यूस करने में संघर्ष करते दिखाई देते हैं। कहानी को जारी रखने के लिए और दर्शकों को भावनात्मक रूप से बांधें रखने के लिए कुछ चीजों को जबरन जोड़ा गया है। जो सामान्य घर में होना अविश्वसनीय और उस उम्र के बच्चे के लिए अनावश्यक है। यह फिल्म के प्रभाव को कम करता है और उसे बोरिंग बनाता है।

 

रिपीट होती कहानी :  फिल्म का सेकंड हाफ रिपिटेटिव लगता है। फिल्म की कहानी पूरी तरह से इस पर निर्भर है जिसमें आपको पता चलता है कि एक बच्ची घर में अकेली है। उसके घर से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। यह शॉक बाद में थकान में बदल जाता है जब हम बच्ची को एक खतरे से बचकर दूसरे में जाते हुए देखते हैं। 

 

पसंद आएगी मायरा की मासूमियत  : मायरा विश्वकर्मा जिन्होंने पिहू का किरदार निभाया है वे बहुत क्यूट हैं। उन्हें देखने में मजा आता है। जिस मासूमियत से वे एक्टिंग करती हैं आपको ऐसा लगता है कि आप जाकर उन्हें खतरे से बचा लें। वे बेजान घर में जान डालती प्रतीत होती हैं। कापड़ी को एक असामान्य विषय पर एक्सपेरिमेंट करने का श्रेय दिया जाना चाहिए लेकिन, उन्होंने स्क्रिप्ट पर ही फोकस किया जो उनके द्वारा ही लिखी गई। जिसने शुरूआत में उत्सुकता जगाने के बाद फिल्म को थकाऊ बना दिया। एक कसे हुए स्क्रीनप्ले के साथ यह फिल्म और भी प्रभावशाली बन सकती थी। 

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