रायपुर (राजकिशोर भगत). बस्तर की जिन छह सीटों की बात कर रहे हैं ये सभी एसटी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। पिछले चुनाव में यहां कांग्रेस ने चार तो भाजपा ने दो सीटें जीती थीं। सतही नजर से देखें तो लगता है पिछले पांच साल में अंत्योदय तो हुआ है। सड़कें, बिजली, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं पर कुछ हद तक काम भी हुआ है। सरकार ने इसी बात का नारा यहां बुलंद रखा है। लेकिन जैसे ही हम आदिवासियों के बीच धंसते हैं, कहानी कुछ और नजर आती है। उनके मुताबिक किसी को लगता है सड़क बनाना चाहिए, बना देता है। किसी को लगता है बिजली देना चाहिए, दे देता है। लेकिन उन्हें क्या चाहिए, ये कोई पूछता ही नहीं। इस पूरे इलाके में इस बार ये बड़ी खदबदाहट है।
आदिवासियों को लगता है कि उनके सांस्कृतिक आयाम धीरे-धीरे कमजोर हो रहे हैं। इसके बारे में न तो भाजपा बात करती है और न ही कांग्रेस। केशकाल में छोटे गोंड और बड़े गोंड का विवाद, आदिवासियों के बीच दूसरी धार्मिक आस्थाओं का बढ़ता प्रभाव इसी बात की ओर इशारा करता है। इसके अलावा जनजाति आयोग भले ही दावा करे कि जाति प्रमाण-पत्र से जुड़े 80 फीसदी विवाद निपटाए जा चुके हैं लेकिन अबूझमाड़ में ऐसी समस्याएं हावी हैं। आदिवासी चाहते हैं कि उनकी विरासतों को सहेजा जाए। लेकिन ये कोशिश फिलहाल बस्तर आर्ट और टेराकोटा तक ही सिमटी हुई नजर आती है।
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