योगेंद्र शर्मा। मानव के जीवन में समृद्धि, वैभव, संपन्नता, शक्ति, बुद्धि और सौंदर्य का समावेश होता है और सांसरिक सुखों की कामना और इसके बाद मोक्ष की आराधना जीवन का चरमोत्कर्ष होता है। इहलोक से परलोक तक की यात्रा मनुष्य इसी महत्वाकांक्षा के साथ तय करता है।
शास्त्रों में वैभव और समृद्धि प्राप्त करने के अनेक उपाय बताए गए हें। इनमे सबसे सहज, सरल और फलीभूत होने वाले उपायों में से एक है श्रीयंत्र की पूजा-उपासना। मान्यता है कि श्रीयंत्र की आराधना से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और सुख-शांति के साथ विपुल धन-धान्य का सौभाग्य प्राप्त होता है।
श्रीयंत्र की शास्त्रोक्त कथाएं
देवगुरु बृहस्पति ने करवाया था श्रीयंत्र का निर्माण
एक बार महालक्ष्मी अप्रसन्न होकर बैकुण्ठ को चली गईं, इससे पृथ्वी तल पर काफी समस्याएं पैदा हो गईं। ब्राह्मण और महाजन वर्ग बिना लक्ष्मी के दीन-हीन, असहाय हो गए, तब ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने निश्चय किया कि मैं लक्ष्मी को प्रसन्न कर भूतल पर ले आऊंगा।
जब वशिष्ठ बैकुण्ठ में जा कर लक्ष्मी से मिले तो ज्ञात हुआ कि लक्ष्मी अप्रसन्न हैं और वह किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर आने को तैयार नहीं हैं, तब वशिष्ठ वहीं बैठ कर विष्णु की आराधना करने लगे। जब विष्णु प्रसन्न होकर प्रकट हुए तो वशिष्ठ ने कहा, हम पृथ्वी पर बिना लक्ष्मी के दुःखी हैं, हमारे आश्रम उजड़ गए हैं। और धरती का वैभव समाप्त हो गया है।
भगवान विष्णु, वशिष्ठ को साथ लेकर लक्ष्मी के पास गए और उन्हें मनाने लगे, परन्तु लक्ष्मी नहीं मानीं और उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि मैं किसी भी स्थिति में वापस जाने को तैयार नहीं हूं। क्योंकि पृथ्वी पर साधना और शुद्धि नहीं है।
निराश होकर वशिष्ठ पुनः धरती पर लौट आए और लक्ष्मी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया। सभी चिंतित थे और समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे थे। तब देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कहा कि अब एकमात्र ‘ श्रीयंत्र साधना ’ ही बची है, और यदि सिद्ध ‘ श्री यंत्र ’ बना कर स्थापित किया जाए, तो निश्चय ही लक्ष्मी को आना पड़ेगा।
बृहस्पति के निर्देश से ॠषियों ने धातु पर श्रीयंत्र का निर्माण किया और उस यंत्र को मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठायुक्त किया। दीपावली से दो दिन पूर्व धन त्रयोदशी को उस श्रीयंत्र को स्थापित कर विधि-विधान से उसका षोडशोपचार पूजन किया। पूजन समाप्त होते-होते लक्ष्मी स्वयं वहां उपस्थित हो गईं और बोलीं – ‘मैं किसी भी स्थिति में यहां आने के लिए तैयार नहीं थी, यह मेरा प्रण था, परन्तु बृहस्पति की युक्ति से मुझे आना ही पड़ा। श्रीयंत्र मेरा आधार है और इसी में मेरी आत्मा निहित है।‘
महादेव ने शंकराचार्य को बताया था श्रीयंत्र का रहस्य
एक बार आदिगुरू शंकराचार्य ने भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। महादेव ने प्रसन्न होकर शंकराचार्य को दर्शन दिए और उनसे वर मांगने को कहा। तब उन्होंने श्रीशिव से जगत कल्याण के बारे में पूछा।
महादेव ने उन को लक्ष्मी स्वरूपा श्रीयंत्र के बारे में बताया और कहा कि श्रीयंत्र त्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है। श्रीयंत्र मे बना चक्र देवी का निवास स्थान है और उनका रथ भी यही है। इस यंत्र में स्वयं देवी विराजमान है। इसलिए इस यंत्र की पूजा से धन वैभव की प्राप्ति के साथ मानव कल्याण होता है। तभी से इस यंत्र की पूजा का विधान चला आ रहा है।
श्रीयंत्र को समस्त ब्रह्मांड का प्रतीक माना गया है। ‘श्री’ शब्द का अर्थ लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, संपदा और विभूति माना जाता है। उपासक को धन संपत्ति विद्या और सुख आदि की ‘श्री’ देने वाली विद्या को श्रीविद्या कहा जाता है। श्री यंत्र को कल्पवृक्ष भी कहा गया है, जिसके सानिध्य में सारी कामनाएं पूर्ण होती हैं, जो साधक को पूर्ण मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है
दुर्गा सप्तशती में कहा गया है
‘आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा’
आराधना किए जाने पर आदिशक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग, अपवर्ग देने वाली होती है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की 'श्री' अर्थात चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए इस यंत्र को 'श्रीयंत्र' कहा जाता हैं। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी हैं। इसे शास्त्रों में विद्या, महाविद्या, परम विद्या के नाम से जाना जाता है।
श्रीयंत्र का निर्माण
इस महाचक्र को शास्त्रोक्त तरीके से गणितीय विधाओं का समावेश कर बनाया गया है। श्रीयंत्र के मध्य में बिंदु है, बाहर भूपुऱ, भूपुर के चारों तरफ चार द्वार और कुल दस प्रकार के अवयय हैं, जो निम्नानुसार हैं- बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशार, वहिर्दशार, चतुर्दशार, अष्टदल कमल, षोडषदल कमल, तीन वृत्त, तीन भूपुर। इसमें चार उर्ध्व मुख त्रिकोण हैं, जिसे ‘श्री कंठ’ या ‘शिव त्रिकोण’ कहते हैं। पांच अधोमुख त्रिकोण होते हैं, जिन्हें ‘शिव युवती’ या ‘शक्ति त्रिकोण’ कहते हैं।
नवचक्रों से बने इस यंत्र में चार शिव चक्र, पांच शक्ति चक्र होते हैं। इस प्रकार इस यंत्र में 43 त्रिकोण, 28 मर्म स्थान, 24 संधियां बनती हैं। तीन रेखा के मिलन स्थल को मर्म और दो रेखाओं के मिलन स्थल को संधि कहा जाता है। इसके चारों ओर जो 43 त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम 10, नियम 10, आसन 8, प्रत्याहार 5, धारणा 5, प्राणायाम 3, ध्यान 2 के स्वरूप हैं।
प्रत्येक त्रिकोण एवं कमल दल का महत्व
इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ 8 कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर 16 दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है। मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी 9 चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ बिंदु फिर त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है।
फिर 8 त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर के 10 त्रिकोण सर्व रोगनाशक हैं। फिर 10 त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर 14 त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर 8 कमलदल का समूह दुःख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर 16 कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है।
अंत में सबसे बाहर वाला भाग त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन 9 चक्रों की अधिष्ठात्री 9 देवियों के नाम इस प्रकार हैं – 1. त्रिपुरा 2. त्रिपुरेशी 3. त्रिपुरसुंदरी 4. त्रिपुरवासिनी, 5. त्रिपुरात्रि, 6. त्रिपुरामालिनी, 7. त्रिपुरसिद्धा, 8. त्रिपुरांबा और 9. महात्रिपुरसुंदरी।
श्रीयंत्र 2816 शक्तियों अथवा देवियों का सूचक है और श्री यंत्र की पूजा इन सारी शक्तियों की समग्र पूजा है। यह बेहद शक्तिशाली ललितादेवी का पूजा चक्र है,इसको ,त्रैलोक्य मोहन, अर्थात तीनों लोकों का ,मोहन यन्त्र, भी कहते है।
ऐश्वर्य एवं लक्ष्मी प्राप्ति के लिए श्री यंत्र के सम्मुख श्री सूक्त का पाठ कर पंचमेवा देवी को भोग लगाने से शीघ्र फल की प्राप्ति होती है।
इस यंत्र को वेलवृक्ष की छाया में रखकर उपासना करने से लक्ष्मी शीघ्र प्रसन्न होती है और अचल सम्पत्ति प्रदान करती हैं।
श्रीयंत्र के सामने सूखे वेलपत्र को घी में डुबोकर उसकी आहूति देने से देवी प्रसन्न होती है और अथाह धन का प्राप्ति होती है।
धातुओं, रत्नों और पत्रों पर होता है श्रीयंत्र का निर्माण
श्रीयंत्र को भोजपत्र, धातु और रत्नों पर बनाने की परंपरा है। मान्यता है कि भोजपत्र की अपेक्षा तांबे पर बने श्रीयंत्र का फल सौ गुना, चांदी में लाख गुना और सोने पर निर्मित श्रीयंत्र का फल करोड़ गुना प्राप्त होता है। इसी तरह से अलग-अलग धातुओं पर बने हुए श्रीयंत्रो का जीवनकाल भी बताया गया है। कि भोजपत्र पर 6 वर्ष तक, तांबे पर 12 वर्ष तक, चांदी में 20 वर्ष तक और सोना धातु में श्रीयंत्र आजीवन प्रभावी रहता है।
'रत्नसागर' में रत्नों पर भी श्रीयंत्र बनाने की बात लिखी गई है। इनमें स्फटिक पर बने श्रीयंत्र को सबसे अच्छा बताया गया है। भोजपत्र पर केसर की स्याही से अनार की कलम द्वारा श्रीयंत्र बनाया जाना चाहिए। धातु पर निर्मित श्रीयंत्र की रेखाएं यदि खोदकर बनाई गई हों और गहरी हों, तो उनमें चंदन, कुमकुम आदि भरकर पूजन करना चाहिए।
‘ श्रीसूक्त ’ के अनुसार जिसके भी घर में पारद श्रीयंत्र स्थापित होता है, स्वतः ही वहां पर लक्ष्मी का स्थायी वास होता है, जिसके भी घर में पारद श्रीयंत्र होता है, अपने
आप में वह व्यक्ति रोग-रहित एवं ॠण-मुक्त होकर जीवन में आनन्द एवं पूर्णता प्राप्त करने में सक्षम हो पाता है। पारद को शिववीर्य कहा जाता है। पारद से निर्मित श्रीयंत्र प्रभावशाली होते हैं।
स्फटिक का बना हुआ श्री यंत्र अतिशीघ्र सफलता प्रदान करता है। इस यंत्र की साधना से साधक जीवन की सभी प्रकार की मलिनताओं से परे हो जाता है। स्वर्ण से
निर्मित यंत्र संपूर्ण ऐश्वर्य को प्रदान करने में सक्षम माना गया है। इस यंत्र को तिजोरी में रखना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था रखनी चाहिये कि उसे कोई अन्य व्यक्ति स्पर्श न कर सके।
मणि श्रीयंत्र कामना के अनुसार बनाये जाते हैं तथा दुर्लभ होते हैं। रजत श्रीयंत्र की स्थापना व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की उत्तरी दीवार पर की जाना चाहिये। ताम्र र्निमित श्रीयंत्र का प्रयोग विशेष पूजन अनुष्ठान तथा हवनादि के निमित्त किया जाता है। इस प्रकार के यंत्र को पर्स में रखने सेअनावश्यक खर्च में कमी होती है तथा आय के नए स्त्रोत खुलते हैं। भोजपत्र से बने श्रीयंत्र का प्रयोग ताबीज के अंदर डालने के लिए किया जाता है. इसके साथ ही लकडी, कपडा या पत्थर आदि पर श्री यंत्र का निर्माण नहीं करना चाहिए।
श्रीयंत्र कई प्रकारों में मिलता है, चन्दन पर अंकित श्रीयंत्र सफेद आक पर अंकित श्रीयंत्र, ताम्र पत्र पर अंकित श्रीयंत्र, पारद निर्मित श्रीयंत्र और यदि गणना की जाए तो
लगभग 108 तरीकों से श्रीयंत्र अंकित किए जाते हैं, सबका अलग-अलग महत्व है, अलग-अलग विधान है।
श्रीयंत्र को सिद्ध करने की विधि
श्री यंत्र के निर्माण व पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त है कालरात्रि अर्थात दीपावली की रात्रि. इस रात्रि में स्थिरलग्न में यंत्र का निर्माण व पूजन संपन्न किया जाना चाहिये।
दीपावली की रात गृहस्थ के लिए श्री यंत्र सिद्ध करना सबसे आसान है। इसके लिए पूजन के बाद लक्ष्मी मंत्र-
।। ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
मंत्र की 11 माला का जाप करें। साथ ही श्री यंत्र की स्थापना कर उसका पूजन करें तो वह सिद्ध हो जाएगा।
श्रीयंत्र सिद्ध करने की एक विधि यह भी बताई गई है। शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को श्री यन्त्र को गंगा जल से धो ले और पूजास्थल में रखकर माता लक्ष्मी का ध्यान लगाते हुए "ओम श्रीँ" मंत्र का जाप करें। "ओम श्रीँ" मंत्र के जाप की 21 माला पांच दिनों तक करना है। उसके बाद ये यन्त्र सिद्ध हो जाता
हॆ।
इसके बाद माघ माह की पूर्णिमा, शिवरात्रि, शरद पूर्णिमा, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण का मुहूर्त श्रेष्ठ होता है। यद्यपि ग्रहण को सामान्यतः शुभ कर्मों के लिए प्रयोग नही किया जाता इसलिए यहां संदेह होना स्वाभाविक है, मगर श्री विद्या पूर्णत: तांत्रोक्त विद्या है तथा तांत्रोक्त साधनाओं के लिए ग्रहण को श्रेष्ठतम मुहूर्त मान गया है।
उपरोक्त मुहूर्तों के अलावा अक्षय तृतीया, रवि पुष्य योग, गुरू पुष्य योग, आश्विन माह को छोडकर किसी भी अमावस्या या किसी भी पूर्णिमा को भी श्रेष्ठ समय मे यंत्र निर्माण व पूजन किया जा सकता है। श्रीयंत्र को सिद्ध करने के लिए वैशाख, ज्येष्ठ, कार्तिक, माघ आदि चंद्र महिनों को उत्तम माना गया है। इस यंत्र को गंगाजल और दूध से स्वच्छ करने के बाद पूजा स्थान या व्यापारिक प्रतिष्ठान में रखकर इसकी पूजा की जाती है।
सभी यंत्रों में श्रीदेवी का श्रीयंत्र सर्वश्रेष्ठ माना गया है। श्रीयंत्र को यंत्रराज की उपाधि दी गई है। दीपावली धनतेरस बसन्त पंचमी अथवा पौष मास की संक्रान्ति के दिन यदि रविवार हो तो इस यंत्र का निर्माण व पूजन से मनोकामना सिद्ध होती है।
श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकला विलास, त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है। महालक्ष्मी स्वयं कहती हैं – ‘ श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’
श्रीयंत्र को यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दुर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है। जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र का उल्लेख मिलता है।
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